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सुबह का आना / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना

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कितनी भयावह थी मेरे लिए वह्रात
मुझे लगा कि मुझ पर गिर पड़ी हैं धेरों चट्टानें
धँस गई है मेरे घर में, मुझे चकनाचूर करने के वास्ते
टूट पड़ी हैं मुझ पर तमाम अप्रिय विपत्तियाँ

खिड़की पर जमा हो गए हैं दुनिया भर के खटके और अलाय-बलाय
बग़ीचे के तमाम जाने-पहचाने परिचित पेड़
जानलेवा फ़ौजी टुकड़ी से झपट पड़े मुझ पर
’त्राहि माम्‍ - त्राहि माम्‍’ — चिल्लाया मैं
जब आफ़तें बरसी मुझ पर तोप के गोलों-सी

मुझे लगा कि मैं ही हूँ गुनहगार,
दोषी हूँ मैं जहाँ-तहाँ निर्दोषों के रक्तपात के लिए
ख़ून से लथपथ है धरती, रक्त से सने हैं खेत और घर
और प्राची में अब कभी फूटेगी नहीं लालिमा

जब कहीं गोली दाग़ी जाती है सत्य के योद्धा पर
होमर या लोर्का के देश में, वह
और कहीं नहीं, सीधे वार करती है
मेरे घर में घुसकर मेरे ही सीने पर

जब कहीं किसी पराए देश में काल-कोठरी में
दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है कहीम कोई
दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली
दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा पाखी ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना