भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ठण्डा लोहा (कविता) / धर्मवीर भारती

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:57, 4 जून 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा!

मेरी स्वप्न भरी पलकों पर
मेरे गीत भरे होठों पर
मेरी दर्द भरी आत्मा पर
       स्वप्न नहीं अब
       गीत नहीं अब
      दर्द नहीं अब
एक पर्त ठंडे लोहे की
मैं जम कर लोहा बन जाऊँ -
हार मान लूँ -
यही शर्त ठंडे लोहे की

ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
तुम्हें समर्पित मेरी सांस सांस थी, लेकिन
मेरी सासों में यम के तीखे नेजे सा
कौन अड़ा है?
     ठंडा लोहा!
मेरे और तुम्हारे भोले निश्चल विश्वासों को
कुचलने कौन खड़ा है ?
     ठंडा लोहा!

ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
अगर जिंदगी की कारा में
कभी छटपटाकर मुझको आवाज़ लगाओ
और न कोई उत्तर पाओ
यही समझना कोई इसको धीरे धीरे निगल चुका है
इस बस्ती में दीप जलाने वाला नहीं बचा है
    सूरज और सितारे ठंढे
    राहे सूनी
       विवश हवाएं
             शीश झुकाए खड़ी मौन हैं
              बचा कौन है?
 ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!

यू ट्यूब पर सुने