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अनुपस्थिति / होर्खे लुइस बोर्खेस / श्रीकांत दुबे

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जागना होगा समूचे जीवन, वह जीवन
जो फ़िलवक़्त तक तुम्हारा आईना है :
हर सुबह उसे फिर से होगा जोड़ना ।

जब से तुम छोड़ आई उन्हें,
न जाने कितनी जगहें हो चलीं असार
और बेमतलब की, जैसे
दिन में रौशनी ।

शामें जो तुम्हारे ख़्वाब का ठिकाना हुआ करती थीं,
गीत, जिनमें तुम हमेशा मेरा इन्तज़ार करती थी,
उस वक्त के शब्द को,
लुटाते रहना होगा अपने हाथों से ।

किस कन्दरा में छुपाऊँगा अपनी आत्मा को
ताकि सहनी न हो तुम्हारी अनुपस्थिति
जो प्रचण्ड धूप सी, बिन सूर्यास्त वाली,
चमकती है कठोर - निर्मम ?

तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे घेरती है
जैसे कोई रस्सी गले को,
जैसे समुद्र
जो डुबोता हो ।

मूल स्पानी से अनुवाद : श्रीकांत दुबे