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पितरपख और माँ / सुभाष राय

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माँ ! सच-सच बताना
क्या पितरपख में तुम सचमुच
आती हो मेरे घर खाने-पीने ?
अगर आती हो तो केवल उन्हीं दिनों क्यों
उन्हीं दिनों क्यों लगती है भूख-प्यास तुम्हें ?

मैंने बहुत झूठ बोला है तुमसे
अब और नहीं बोलूँगा
मैंने कभी श्राद्ध नहीं किया
मैं पितरपख में भी तुम्हें
खाना-पीना नहीं देता हूँ

तुम तो अब आत्मा भर हो
प्रकृति के कण-कण में विन्यस्त
क्या नहीं है तुम्हारे पास

कहो तो एक बात पूछूँ
तुम तो पुनर्जन्म मानती थी
तो क्यों भटक रही हो इधर-उधर
अभी तक जन्म क्यों नहीं लिया
तितली या फूल बनकर
नदी या स्त्री बनकर

सब माँएँ एक जैसी लगती हैं मुझे
प्रेम और करुणा से भरी हुई
जीवन के युद्ध के लिए
बच्चों को पल-पल रचती हुई

तुम कुछ हवा, कुछ पानी, कुछ आकाश
कुछ पृथ्वी और कुछ आग में ज़रूर बदल गई हो
फिर भी रह गई हो मेरे भीतर
आत्मा में आत्मा की तरह
प्रकृति में प्रकृति की तरह

तुम्हीं में सारा अन्न है, तुम्हीं में सारा जल
फिर कैसी भूख, फिर कैसी प्यास ।