कविताओं का चरवाहा / निदा नवाज़
अपनी दोस्त के नाम
मैंने भला कब चाहा था अपनी कविताओं में
तुम्हारे प्यार के सिवा कुछ भी लिखना
मैंने भला कब चाहा था
बम, बारूद और बन्दूकों पर कविता लिखना
या कर्फ़्यू, क्रेकडाउन और क्रॉस फ़ायरिंग की बातें करना
या उन सैकड़ों नरसंहारों को दर्ज करना
जिनमें हज़ारों निर्दोष लोग मारे गए
मैंने भला कब चाहा था
कि मैं उन सैकड़ों फ़र्ज़ी झड़पों की बात करूँ
जिनमें हज़ारों युवाओं का इस्तेमाल हुआ
और न ही कभी चाहा था उन बेनाम क़ब्रों पर बात करना
जिनमें मौजूद कँकालों पर भी
कोतवाल की बर्बरता के निशान मौजूद हैं
मैं तो कविताओं का चरवाहा हूँ
भला, कब चाहूँगा कि मेरे कोमल शब्दों के रेवड़ पर
आतँकवाद का ज़हरीला साया भी पड़े
न ही चाहा था कि मेरी कविताओं में
कोई कोतवाल मुझे डराए
या कोई नक़ाबपोश घुसपैठ करे
वही नक़ाबपोश जिनके फ़तवों के डर से
रात के भयभीत अन्धेरों को फलाँग कर
तुम अपनी मातृभूमि से निकले थे
मैंने ये सब कब चाहा था
मैं तो चाहता था अपनी कविताओं में, बस, प्यार लिखूँ
विश्वभर के प्रेमियों के लिए
और तुम्हारे लिए भी मेरी जानाँ
मैं तो चाहता था तुम्हारे बालों को लहराते बादल लिखूँ
लेकिन यहाँ तो टियर-गैस और मिर्ची-गैस के गहराते बादल हैं
मैं तो तुम्हारी आँखों को रहस्यमय जँगल लिखता
लेकिन अब तो मेरी पूरी घाटी
अनिश्चितता के आतँकी जँगल में बदल गई है
मैं चाहता था तुम्हारे लाल-लाल होंठों को
सुर्ख़ गुलाब की पँखुड़ियाँ लिखूँ
लेकिन यहाँ के सारे गुलाब मुरझा गए हैं
मैं चाहता था तुम्हारी मुस्कान को सूर्योदय लिखूँ
लेकिन यहाँ सच के सभी सूर्यों पर पहरे बिठाए गए हैं
मैं चाहता था तुम्हारे स्वरूप को दरिया लिखूँ
लेकिन यहाँ का इकलौता दरया-ए-जेहलम भी
लहू के रँग का हो गया है
जब मैं धार्मिक दलालों, नफ़रतों के सौदागरों
और तानाशाह प्रशासन के बीच फंस गया हूँ
तो अपनी कविता को
तुम्हारे रेशमी बालों, गुलाबी होठों, रहस्यमयी आँखों
दरिया-सी देह, सूर्यकिरण-सी मुस्कान से दूर ले जाना
लाज़िमी ठहरता है, मेरी जानाँ !
और लाज़िमी ठहरता है
शब्दों के सशक्त प्यालों में कड़ुवा यथार्थ परोसना
हर तानाशाह और आतँकी के ख़िलाफ़
दर्ज करना एक पुरज़ोर विद्रोह
वरना मैंने, भला, कब चाहा था अपनी कविताओं में
तुम्हारे प्यार के सिवा कुछ भी लिखना ।