भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्राणो में बाँसुरी / दिनेश कुशवाह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:03, 13 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुशवाह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कितने दिन हुए
धूल में खेलते किसी बालक को
उठाकर गोद में लिए हुए ।
मुद्दत हुई अपने हाथ से पकाकर
किसी को जी भर खिलाकर
अपनी आत्मा को तृप्त किए हुए ।
कितने दिन हुए
हाथ से बन्दूक छुए
जबकि वह मुझे अच्छी लगती है ।
किसी जूड़े में फूल गूँथे हुए
कितने दिन हुए
कितने दिन हुए
नदी में नहाए हुए ।
कितने दिन हुए
न रोमाँच हुआ
न जी टीसा
न प्राणो में बाँसुरी बजी ।
कितने दिन हुए
न खुलकर रोया
न खुलकर हँसा
न घोड़े बेचकर सोया ।