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सन्तोष / दीनदयाल गिरि
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एहो तोख कुलोभ तम को तोलों है बास ।
जौलों नहिं रबि रूप तुम प्रगटत हृदै अकास ।।
प्रगटत हृदै अकास लाभ लघु मुद जुगुनू के ।
दुख दीनता मलीन उलूक रहैं ढिग ढूके ।।
बरनै दीनदयाल लोभ को कब भय देहो ।
तुम बिन सुख नहिं रंच सुनो सन्तोख अए हो ।। ५४।।