भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पृथ्वी के साथ भी.. / विवेक चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:10, 22 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विवेक चतुर्वेदी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुरुषों से भरा वह टेम्पो रुका
और कोने की खाली जगह में
सकुचा कर बैठ गई है एक स्त्री
सहसा... थम गऐ हैं
पुरुषों के बेलगाम बोल
सुथर गई है देहभाषा
एक अनकही सुगंध का सूत
रफू कर रहा है पाशविकता के छेद
अनुभूति दूब सी हरी हो चली है
कुछ ऐसा ही तो हुआ होगा
शुरु शुरु में
दहकती पृथ्वी के साथ भी।।