कविता के साथ / राम सेंगर
इस कठिन समय में भी
कविता के साथ
खुली अय्याशी चल रही ।
टूटे तारों वाली
ज्ञानात्मक सम्वेदन की चूहादानी ले
चुहिया को सब चले पकड़ने ।
ठेठ बुद्धिजीवी की
हेकड़ी-भरी जिजीविषा का आतँक मचा
चोर लगे साह पर अकड़ने ।
कालगत चुनौती के
सृजनात्मक उत्तर की
कोई विन्यासगत तलाश नहीं सोचों में
मारते डकार गड़गड़ाती सब धर्मगुरू
चबर-चबर जाने क्या
चलती है बतकही ।
इस कठिन समय में भी
कविता के साथ
खुली अय्याशी चल रही ।
हंसिया में धार नहीं
भाषाई आभिजात्य के खींचे तुर्रे पर
गच्च-गच्च कट रहे टमाटर ।
तावहीन बालू में
गट्टपट्ट कुछ तो भी भून रहे भड़भूजे
कटे-कटे क्षण से मुतवातर ।
रण्डी के गद्दे-सी
मँचों से भभक उठे
भीतर की सारी संश्लिष्ट जटिलताओं को
ताल ठोंकतीं उलाँघ जाने को मेंढकियाँ
तर्कों की दाल
बुझे चूल्हे पर गल रही ।
इस कठिन समय में भी
कविता के साथ
खुली अय्याशी चल रही ।
पिटे अर्थगौरव की
गत्तलें लगाकर सब चिंहुक-चिंहुक चलते हैं
शब्दों की पहन घिसी पनही ।
बुदुर-बुदुर हम करते
पसली के घाव पर बँधी पट्टी हाथों की
रखे हुए हैं मन की मन ही ।
ज़ँग लगी सील
नहीं टूटी है बोतल की
दवा ज़हर बन लेगी,
ऐसे हालातों में —
चेतन के उखड़े संस्कारों की लयकारी
थोथे सम्प्रेषण की
पेले है गुण्डई ।
इस कठिन समय में भी
कविता के साथ
खुली अय्याशी चल रही ।