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रात : कुछ दृश्य / कुमार मंगलम

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एक

दो पहर रात बीत जाने के बाद
खड़ा हूँ अपनी बालकनी में
सामने देखता हूँ
चान्द को

कुछेक तारों के साथ
जुगलबन्दी कर रहा है
पीपल के विशाल वृक्ष
और उन पत्तों के सरसराहट के बीच
झिलमिला रहा है चान्द
जैसे तुम्हारी याद झिलमिलाती है
मन के किसी कोने में

जो जगे हैं वो या तो इश्क़ के मारे हैं
या बीमार हैं
यह हेमन्त की कटती हुई रात है
दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़

रह-रह कर आती है
और पत्तों की सरसराहट के एकालाप को
तोड़ देती है

किसी फटे छप्पर से चान्द वैसे ही
झिलमिलाता है
जैसे मेरी बालकनी के सामने वाले पीपल के
पत्तों के बीच से

मज़दूर
जिसकी नींद उचट चुकी है
वो भी देख रहा है चान्द को
इस उम्मीद में कि कल उसको
काम मिल ही जाएगा
उसके एक अलंग में उसका बच्चा सोया है
और एक ओर उसकी पत्नी कथरी लपेटे

ठण्ड से थरथरा रही है
मेरे लिए यह सुहाना और शीतल चान्द
जो मेरे उनींदी नींद पर मरहम लगा रहा है
यह सच नहीं है

हक़ीक़त यह है कि
यह चान्द एक अजगर है
जो अपने को बड़ा कर रहा है
किसी को परिवार समेत निगल जाने के लिए


दो

जो दिन के उजाले में सम्भव न था
उसका क्रियान्वयन हुआ
जब हाथ को हाथ नहीं सूझता था
और बात बन गई कि
इस सर्द रात ने सुन्न कर दिया था
मस्तिष्क को
सुबह अख़बार के दबे पन्ने
दबी आवाज़ में सिसकी ले रहे थे
कुछ लोग थे जो गला फाड़ चिल्ला रहे थे
उनको पागल करार दिया गया
ऐसा पागल जिनको अपनी आवाज़ रखने का
हक़ इस बहुमत बाहुबली लोकतन्त्र ने छीन लिया था
उन्होंने कहा उनको मुक्ति मिल गई
बार-बार मरने से ।