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चौथा सर्ग / कच देवयानी / मुकुन्द शर्मा

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संजीवनी

ग्रीष्मकाल पहुँचल बाहर में लगल आग हे,
बैठ पेड़ पर बोल रहल हें सगुण काग हे।
प्यासल हिरण नर्मदा में पी रहल हें पानी,
मधु मिसरी घोलल हे कोकिल अमृत वाणी।
धूप घाम में कमा रहल हें सब वनवासी,
पत्थर गरम होल ना दिया में पानी खासी।
वनके जीवजन्तु गर्मी से सबहे व्याकुल,
वनके छाया में जे बैठल ऊ हे माकुल।
सुबह और संध्या में रेवा में नहान हे,
रेवाई धरती पर सबके बड़ी मान हे।
ग्रीष्म बाद नभ में बादल अब नाचे हे,
विंध्याचल के कृषक भाग्य के जाँचे हे।
गर्मी के दिन हे खिलल गुल मोहर,
नाचे हे पुरवैया गावे हे सोहर।
देवयानी छाया में देखे हे फूल,
सुक्खल लगे अखने इमली बबूल।
बड़का बर गाछ के पोखहा झरे लगल,
पछिया के आँधी सगरो चलो लगल।
पावस में बजो लगल छन के मृदंग,
उगल हे पनसोखा कत्ते ने रंग।
विंध्याचल भींगरहल वर्षा के पानी,
मेघ के गर्जन हे गुरू गंभीर वाणी।
रेवा में वर्षा से आल हें बाढ़,
नेही के नेह बढ़ो लगल प्रगाढ़।
घास के चकत्ता से पगडंडी झौंपल,
सागर से पर्वत तक भींग लोग कौंपल।
नाचे विंध्याचल के घाटी में मोर,
दादुर बन पाखी कर रहल हें शोर।
झिंगुर कर रहल हें रात भर शोर,
जागे हे नर्मदा दिनरात भोर।
धान के खेत में गूंजे हे कजरी,
रेवा किनारे बड़ी दूर बसल नगरी।
देवयानी के मन में उमड़ल हल प्रेम,
पूछे हे रोज कच से कुशल और क्षेम।
असुर सब कच से कर रहल बैर,
कहलक कचके फूँक-फूँक रखिहा पैर।
राक्षस सब जान गेल कच असुर घाटी,
आल कहाँ से काहे ई हे असुरघाती।
कचके समझैलक बुझैलक देवयानी,
कच ओकर जीवन हे ऊ हे कल्याणी।
दोनों एक दूसरा के देख के संतुष्ट,
दोनों एक दूसरा से कजै नय होल रुष्ट।
दोनों के प्रेमलता चढ़लै परवान,
अन्तर्मन में गूँजो लगलै प्रेम के गान।
दोनों तरफ हल आकर्षण के डोर,
एक तरफ कच देवयानी अपर छोर।
कभी देखे कच ओकरा कभी देवयानी,
दोनों के निहारे हे प्रेम भरल वाणी।
दोनों गोसेवक हे दोनों वनवासी,
सुरपुर से आल हें कच हे प्रवासी।
कभी-कभी कचके मन डगमगा हे,
प्रेम के तरूणाई के अंकुर सुग बुगा हे।
शोभा अलौकिक हल देवयानी काया,
कच अपर कामदेव कल्याणी छाया।
दोनों कमनीय कांति उभय दिव्य देह,
बरसों हल दोनों के मन प्रेम-मेह।
दमको हल दामिनी चमकोहल बिजुरी,
दोनों सबारहल प्रेमनवी-बजरी।
कच तो आल हें सीखे ले संजीवनी,
ओकरा छिपाव परत प्रेम के रागिनी।
पावस के बाद आल शारदी सुहानी,
मेघ छँटल घटोलगल नदिया के पानी।
नदी होल नव दर्पण, सर-सरिता निर्मल,
खंजन फुदके सगरो आसमान कज्जल।
बीत गेल राखी, बीत गेल तीज,
खेत में किसान सब बोए हे बीज।
घुलल पहाड़ हे, नहैने सब गाछ,
मछुआरा पकड़े हे नदिया में मांछ।
फुदके गोरैया आश्रम के आंगन,
चिक्कन, नीपल, पोतल आश्रम प्रांगण।
कास हे फुलाल सगर, आसमान नील,
धरती पर शांत लगे छोट-बड़ झील।
चें-चें चिंचिया हे पेड़ पर कीर,
पुरवा में जागे हे अंग-अंग पीर।
आल दिवाली घर-बाहर इंजोर,
छठ के तैयारी हे सगरो पुरजोर।
गुरुजी के गैया चरावे कच रोज,
असुर सब कर रहल ओकरे सब ज्ञान,
कच भी निष्ठा से करो हल सम्मान।
एक दिन फेर कचके असुर देलक मार,
ओकरा पीसके सुरा देलक डार।
पीलक सब असुर कच नय पहुँचल शाम,
देवयानी छटपट हे रोकलक सब काम।
पिताजी से कहलक कच फेरनय आल,
कच के बिना आश्रम सूना कंगाल।
कच ह आश्रम धन कच हमर जीवन,
जल्दी सिखावो तों एकरा संजीवन।
कच बड़ आशा है, कच बड़ भाषा,
कच गढ़लक हें नयका परिभाषा।
बेटी मत सोेचकर हम ओकरा लैबै,
जल्दी, जल्दी सब ज्ञान भी सिखैवै।
कच के रहना चाही खूब सावधान,
असुर सुर द्रोही नै करतै सम्मान।
ध्यान लगैलका ऊ कच नै हे जीवित,
असुर के पेट में अब तोहे ऊ मृत।
संजीवनी मंत्र से असुर पेट फाड़,
कच आल बाहर असुर कैलक दहाड़।
गुरुजी के कृपा से ऊ बचल दोसर बार,
राक्षस सब सोंचलक हम रहलों हे हार।
निबिड़ जंगल में चरारहल कच गाय,
राक्षस सब सोचलक कच बड़का बलाय।
गुरु जियावो हका हम देही मार,
अबकी नय होतै एकर बेड़ा पार।
बांसुरी बजाते हल कच बेखबर,
असुर सब सोचे हे देव होत अमर।
कच के पकड़ मार सुरा में घोर,
गुरु के पिला देलक कैलक हर होर।
कच के नय अयला से गुरुसुता उदास,
शाम होल, रात होल, ऊ हल निराश।
देवयानी आँख में भरल हे लोर,
असमय अमंगल देलक फेर झकझोर।
पिता को पकड़ पाँव कैलक विलाप,
कच के बिना हमर जीवन हे शाप।
ध्यान लगैलका गुरु कच उनखर उदर,
ओकरा बचावी तो हम ही जाम भर।
बेटी सिखैलांे हे कच के संजीवन,
ओकरा लौटावे पड़ते अब हमर जीवन।
कच बनतै सुर असुर बीच के सेतु,
कच के जीवन के है बड़का हेतु।
कच के विद्या के बड़की परीक्षा,
कच जे मांगलक हम पूर्ण कैलों इच्छा।
सावधान बेटी हम करो ही आवाहन,
कच के जिलावे ले गुरु मंत्रोच्चारण।
कच होल बाहर गुरु मृत्यु के द्वार,
आश्रम में होल तब बड़ा हाहाकार।
विस्मय दुख से देवयानी रहल देख,
हाय विधाता के कैसन है लेख।
कचके पुनर्जीवन पिता के मरण,
व्याकुल देवयानी कच हल क्षण-क्षण।
कच सब देखके हल बेचैन,
बड़ी अंधियारा हल आज के रैन।
ज्ञान के ज्योति किरण छिटकल कच आनन,
फैलल उजास तखने घर आंगन।
शारदा, गुरु के कच कैलक नमन,
सिखलक जे संजीवनी ओकर स्मरण।
पलक होल बंद कच लगैलक ध्यान,
संजीवनी मंत्र के कैलक आवाहन।
गुरु के शरीर पर अभिमंत्रित जल,
चेतना लौटल गुरु बैठला संभल।
कच देलक गुरु के आय पुनर्जीवन,
सिद्ध सफल होल आय कचके संजीवन।
विस्मय विनत कच गुरु के चरण,
श्रद्धा समेत ऊ कैलक वंदन।
तों हा जीवन दाता तों ज्ञान-सूर्य,
सुर-असुर दोनों पुर बजे तोर तूर्य।
विद्यानिधि हमरा सिखैला संजीवनी,
अब तो संजीवनी से हम हूँ बनलों धनी।
जीवनकृतकार्य होल हम गुरुवर धन्य,
संजीवनी विद्या पैलक ब्रह्मण्य।
गुरु के कृपा से हम पैलों हें तेज,
एकरा रखवै हम बड़ी सहेज।
जीवन में असुर तत्व के करवैनाश,
मनुज देव तत्व के करवै विकास।
फैलल है सगरो स्वार्थ के कुहरा,
कोय नै एकहरा हे सब हे दोहरा।
सबके जीवन पर स्वार्थ के पहरा,
ईर्ष्या-द्वेष के खाई हे गहरा।
हम ओकरा पाटवै, काँटा के छांटवै,
जन-मन में प्रेम के खिलल पुष्प बांटवै।
धरती पर फैलल है सगरो वीरानी,
युद्ध जर्जर हका देवता असुर नामी।
सबके देखावे पड़तै नयकी राह,
युद्ध से ब्याकुल सब लोक हे तबाह।
आर्त क्रन्दन हे, भीत जन हे असमर्थ,
मारल जा रहल हे, युद्ध बड़का अनर्थ।
रोको सब युद्ध के करो विकास,
ऊपर कुच्छो नय है छुच्छे आकाश।
मरणासन्न जीवन के देम पुनर्जीवन,
सेवा गरीब के हमर है बड़का धन।
करुणा के सगरो बहावो पड़तै धार,
जब तक नय होतै हम मानवै नय हार।
सुर में असुर थोड़ा असुर में सुर,
दोनों के सिखैवै हम मानवता गुर।
मानव हय धरती पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी,
ऊहे है देवता जे बड़का ज्ञानी।
तोर कृपा पाको हम सबकुछ पैलों,
हम कृतकृत्य ही जे काम ले अइलों।
धरती महीयसी हे स्वर्ग हे कृपण,
धरती के माटी हमरा ले चंदन।
स्वर्ग में न गंगा हे और नय् रेवा,
सब ओजा खोजे है बैठले में मेवा।
धरती है, धन्या सबके है माता,
एकरा से बढ़को नय कहियो विधाता।
हमरा मिलला तों गुरु सच्चा ज्ञानी,
ज्ञानी, विज्ञानी हा, हा महाकवि प्राणी।
ज्ञान देला, मान देला, देला नया जीवन,
तंत्र देला मंत्र देला देला पुनर्जीवन।
कचके माथा पर गुरु धैलका हाथ,
बेटा हम सब दिन देवै तोर साथ।
मंत्र तोर पूर्ण होल, पूर्ण होल आशा,
पूर्ण तोर सध्णना पूर्ण जिज्ञासा।
संजीवनी विद्या के अब तों आचार्य,
बेटा गुरु कृपा से तों होला कृतकार्य।
कठिन साधना सेवा से हम ही मुग्ध,
मनुज, देव संस्कृति के करो तों शुद्ध।
पूर्ण होलो बेटा अब तोर प्रवास,
फैलावो संजीवनी विद्या विभास।
बेटा तों विद्या मंे अब हा सफल,
गुरु के कृपा से चरित्र निर्मल।
बहुत दिन भेलो अब लौटो स्वदेश,
सेवा करो सबके जीवन जे शेष।
पहुँचल हेमंत हल शीत पुरजोर,
धरती पर घिरल हल कुहरा घनघोर।
चिड़िया-चुरमुन्नी हल खोंता में बंद,
सगरो पसरल हल हेमंती छन्द।
आश्रम आर जंगल में अलोहल आग,
पछिया सांय-सांय करे सब रहल आग।
ठिठुर रहल वनप्राणी आर वनवासी,
सबके दलकावै हेमंत संन्यासी।
कपड़ा, कम्बल चाही, चाही आहार,
समता के हो समाज निर्धन उद्धार।
सूरज के गरम धूप, हे गरीब के कंबल,
अभियो अशिक्षित हे गरो के जंगल।
समता के अभियो नय बनल समाज,
झोपड़ी गरीबी पर गिर रहल गाज।
कथा व्यास कमा रहला धन पुरजोर,
शिक्षा व्यवसाय बनल ई अनर्थ घोर।
देवे पड़तै संजीवनी सब कुछ निष्प्राण,
समाज के उठावे ले क्रान्ति आह्वान।
आश्रम के कुटियाहल शांत निर्भान्त,
ज्ञान प्राप्ति के होल आज सीमांत।