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बेटा से न´रखिहा आशा / सिलसिला / रणजीत दुधु

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बेटा से न´ रखिहा आशा
न´ तो हाथ लगतो निराशा।

जीवनभर के कमाय लुटावऽ
खाली तों अपन फर्ज निभावऽ
कतना की कइला इ मत गावऽ
सोना-चाँदी बनतो कासा
बेटा से न´ रखिहा आशा।

तभिये बेटा जब तक कुमार
जइसही विआह घर ससुरार
लुट जइतो पहिलका पियार
पलटल देखे मिलतो पासा
बेटा से न´ रखिहा आशा।

माय बाप बनथिन सास-ससुर
जे जलमइया उ होवा दूर
न´ काम करतो एक्को लूर
बदलल मिलतो ओकर भाषा
बेटा से न´ रखिहा आशा।

बेटा तोहर बनतो नउकर
बात-बात पर मिलतो ठोकर
अपने जलमल लगतो दोसर
न´ रहवा तों खासम-खास
बेटा से न´ रखिहा आशा।

ुनु के असतर बदलल रहतो
दुनु के वसतर बदलल रहतो
गाम आउ बदलल रहतो
कइसे देतो कोय दिलासा
बेटा से न´ रखिहा आशा।

कामो न´ करतो हाथ गोड़
तरेंगन गिनते होतो भोर
टेहुना से भी गिरतो लोर
टुटतो जग से तोर भरोस
बेटा से न´ रखिहा आशा।

उहो तो एकदिन बनतइ बाप
फल मिलतइ जे कइलक पाप
याद अइतइ बाप के सराप
जब घुटतइ ओकर सोबांसा
बेटा से न´ रखिहा आशा।