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एगो आम / कुमार वीरेन्द्र

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गुहाड़ी सिंह की
आँख से देखा जाए, और सोचा जाए दिमाग़
से तो एगो आम है एक लाख का, तभी तो पता नहीं, कौवे ने गिराया ठोर मारके कि सुग्गे ने
कि कवनो अउर चिरईं-चुरुँग ने, जतन कर डाल दी खटिया पेड़ पर ही कि तेरी तो, आओ रे
अब देखता हूँ किसके बाप की मजाल, जो ठोर मारे हमरे आम को, तो
ये तो गुहाड़ी सिंह, लेकिन इनसे भी कम नहीं चटकन
बाबा, जो बीन न ले जाए कोई आम
ख़ाली अगरम-जगरम
के बजाय

कसके पछुआ खोंस
घूमते रहते हैं बगीचे में, देखते हैं जब या होता है
आभास, किसी के आने-जाने, होने का, लगाने लगते हैं किसी पेड़ का तेज़ी से चक्कर, ताकि
लोग भूत समझ भाग जाएँ, सुनने में आता है, चटकन बाबा आम-रखवारी ख़ातिर नहीं, डरते
हैं भूतों से इतना, ख़ुद भूतों की तरह, पछुआ खोंस, लगा धूर-माटी घूमते
हैं भर-रात, समझें भूत अपनी बिरादरी का, और बस हाल
चाल जान छोड़ दें उन्हें, वैसे कोई और बड़
बुजुर्ग है भी नहीं घर में, करे
जो रखवारी

ऐसे में करें तो क्या
करें चटकन बाबा, लेकिन सुनिए, चटकन बाबा को
जैसी करनी है, करते हैं रखवारी, पर पहलवान जी की रखवारी का, बयान करना ही क्या, सोचिए
उनके बगीचे से एगो कच्चा आम उठाया क्या चटनी के लिए कवल ने, ऐसा मारा उल्टा दाँव पकड़
उसे कि चित और अधमरु हो गया कवल, और टाँग दिया पहलवान ने बाँध गमछी
से वहीं डाल पर, कि आम रे यादव जी के और खाए चटनी 'नान्ह'
इस तरह ई ऊ गाँव है, ऊ, जहाँ एक बच्चे के
ढेले से, टूटा एक आम और दो
सिंहों में भँजीं

इतनी लाठियाँ, चलीं
गोलियाँ, अन्ततः गिर के ही रही एक पक्ष की
एक लाश, और कर दिया बर्बाद एगो आम ने, बोरा भर-भर पैसा रखनेवाले एक मुखिया को
जो फिर मुखिया न बना भले, मुखिया जी बना रहा ज़रूर, तो एगो आम रे एगो आम, तोहके
देखा जाए तो तू रे आम, है एक ही, पर जतने मीठ ओतने तीत रे इयार
अक्सर आता नहीं समझ में रे एगो आम, ई गाँव, गाँव है
कि है गढ़ गँवारों का, जहाँ लोग भरी
बन्दूक़ रख सिरहाने, करते
हैं रात-भर

रात-रात-भर

तेरी रखवारी रे रखवारी !