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एक मोर का पंख / विनय मिश्र

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एक मोर का पंख रखा है
 बरसों पड़ी किताब में

 मार कोहनी संकेतों की
 अक्षर हैं बौराये
 सहमे हुए अर्थ के पंछी
 मगर कहांँ उड़ पाये
 सदियों चलकर
 सच की दुनिया
 टिकी हुई है ख़्वाब में

 जाने सच है या केवल
 यह मौसम की है लेखी
 मीठे संबंधों में अक्सर
 तनातनी है देखी
 रिश्ते कायम
 वैसे ही हैं
 कांँटे और गुलाब में

 आंँखों में दिन भर की बातें
 लिए टहलती शामें
 बाहर चुप्पी लेकिन भीतर
 चाहों के हंगामे
 छवियांँ जगतीं रहीं
  रात भर
 यादों के मेहराब में