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भाई हो कहांँ / विनय मिश्र

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    खत न कोई बात
    भाई हो कहांँ

     बहुत ऊंँची है हवेली
     बहुत ऊंँचे लोग
     है अकेलेपन का लेकिन
     हर किसी को रोग
     हर तरफ हैं
     मौत के हालात
     भाई हो कहांँ

      दिन, शहर की हलचलों में
      हो गया नीलाम
      हादसों में डूबती है
      ज़िन्दगी की शाम
      सिर्फ आंँसू ही मिले
      सौगात
      भाई हो कहांँ

      भाषणों में सभ्यता की
      बस दुहाई है
      एक बित्ता धूप की
      खातिर लड़ाई है
      कर रहे अपने ही
      भीतर घात
      भाई हो कहांँ ।