भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ और गुम होता काजल / विनोद विट्ठल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:11, 9 जुलाई 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भले ही शुरू करते हैं स्मृति की वर्णमाला उससे
बाद के दिनों में किसी पर्फ़्यूम की तरह वह धीरे-धीरे उड़ती है
लेकिन दर्द के क्षणों में वह अचानक आ जाती है
जैसे लँच में अचार की गन्ध से खाने की इच्छा

कहीं भी हो उसकी आँखें हमें देख रही होती हैं
उसकी प्रार्थना और प्रतीक्षा में वैसे ही शामिल रहते हैं हम
जैसे उसके सपनों और डरों में

माँ बड़ियाँ बनाती है
बाजरे की खीर
और कुछ ऐसी सब्ज़ियाँ जिन्हें खाते हुए हम पूछते हैं उनके नाम

कुछ रिश्तेदारों के बारे में भी केवल वही जानती है
वैसे ही जैसे कुछ फूलों, फलों और फ़सलों के बारे में
बीमारियों, कीटों, जानवरों और उपचारों के बारे में

उसे सपनों के कूट अर्थ पता हैं
शगुन वह जानती है

बक़ौल उसी के —
कि जिस रात सपने में दिखेगी सूखी नाडी
अगली सुबह वह नहीं होगी
और हमारे स्वाद और ज्ञान का एक बड़ा हिस्सा
उस काजल की तरह गुम होगा
जो वह मेरी बिटिया के रोज़ सुबह आँजती है