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मच्छरों का संगीत / महेन्द्र भटनागर
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(‘प्रयोगवाद’ पर व्यंग्य)
हर रोज़ रात होते ही
अनगिनती मूक मच्छरों का
समवेत-गान
कमरे में गूँज-गूँज उठता है !
जिसमें नहीं तनिक भी
भाव कल्पना का वैभव
केवल बजता -
रव, रव, रव !
निद्रा उचटा देने वाली
यह कैसी लोरी ?
यह कैसा सरगम ?
अच्छा हो
यदि इस पर बरसे
डी. डी. टी.
झय्यम-झमझम-झय्यम !