भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मच्छरों का संगीत / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:26, 13 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=संतरण / महेन्द्र भटनागर }} '''(‘प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(‘प्रयोगवाद’ पर व्यंग्य)

हर रोज़ रात होते ही
अनगिनती मूक मच्छरों का
समवेत-गान
कमरे में गूँज-गूँज उठता है !
जिसमें नहीं तनिक भी
भाव कल्पना का वैभव
केवल बजता -
रव, रव, रव !

निद्रा उचटा देने वाली
यह कैसी लोरी ?
यह कैसा सरगम ?

अच्छा हो
यदि इस पर बरसे
डी. डी. टी.
झय्यम-झमझम-झय्यम !