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रात भर / महेन्द्र भटनागर

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रात भर सन्-सन् पवन
फूस की छत और माटी की दिवारों से
शराबी की तरह
करता रहा मदहोश आलिगन !

रात भर सन्-सन् पवन !

डोलती दहशत रही भीतर कुटी के,
चार आँखें
रतजगा करती रहीं भीतर कुटी के,
तम बरसता ही रहा
पर,
घिर न पाया एक पल
आशा भरा भावी उषा-जीवन !

रात भर
गरजा किया सन् सन् पवन !