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मेरे महबूब / नाज़िम हिक़मत / उज्ज्वल भट्टाचार्य
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मेरे महबूब !
झुकी हुई गर्दन, फटी-फटी आँखें,
अँगारों से जलते शहर,
बरबाद हुई फ़सल
और कभी न थमती बूटों की आवाज़ :
और काटे जाते हैं इनसान :
कहीं अधिक आसानी से,
कहीं अधिक अक्सर
पेड़ों और बछड़ों के मुकाबले ।
मेरे महबूब !
इन चीख़ों के बीच, क़त्ले-आम के बीच
वो लमहे आए, जब मैं अपनी आज़ादी, अपनी रोज़ी-रोटी और तुम्हें खो बैठा ।
लेकिन भूख के बीच, अन्धेरे में, चीखों के बीच,
आने वाले उन दिनों में मेरा यक़ीन बना रहा,
जो कभी धूपहले हाथों से हमारे दरवाज़ों पर दस्तक देंगे ...।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य