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ठोरवाला / कुमार वीरेन्द्र

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1

जब हेतु उसके
बगीचे में जाता, वह वही आम
देती खाने को, जिस पर सुग्गे के ठोर होते, वह आती हेतु के बगीचे
में, वह भी देता उसे, वही आम, वो ऐसे दिन थे, दोनों के झोरे, बीजू
आमों से भरे होते, लेकिन वे सुग्गे के ठोरवाले
एक आम के लिए, रह जाते
दिन-दिन-भर

भूखे !

2

किसी दिन ऐसा
वह आती, हेतु नहीं जाता, किसी दिन
हेतु जाता, वह आ नहीं पाती, किसी दिन दोनों होते, अपने बगीचे में ताकते
फिरते पेड़-पेड़, बैठे कि नाहीं सुग्गे, और वह आ पाती न वह जा पाता, बिन
बुझाए बूझ जाते कि आज उसे मिला मुझे नहीं, मुझे मिला
उसे नहीं, या आज मिले ही नहीं दोनों
में से, किसी को आम
सुग्गे के

ठोरवाले !

3

और अभी ठीक से
सेयान भी नहीं हुए, एक दिन उसका ब्याह
तय हो गया, उसने बताया, सुग्गे के ठोरवाले आम देते, ‘का सोचते हो...लो खाओ, बाबू
कहते हैं माई भी, तू पराई थोड़े होगी जल्दी बुला लेंगे, फिर पाँच साल बाद गवना करके
भेजेंगे’, और जिस रात उसकी बरात आई, उसके घर के पिछवाड़े बैठा
हेतु, उसकी बकरी से बतियाता रहा, कबहुँ उसकी
बकरी का मुँह अँजुरी में भर लेता
भीग भी लेता

इहँवा कहँवा कोइलर
धरती शोर, सरग टिटिहरी की टीटी टी, टीटी टी
वह बगीचे में चला गया, रात-भर बीनता रहा आम, काका लाख कहते रहे, 'अबहीं जा
भोरे आना', भोर हुई बाँध पर बैठे हेतु ने देखा, ओहारवाली आ रही डोली, टुकुर-टुकुर
देखता रहा, और निकल गई दूर, इतनी, धुँधलाने लगे कहार, लगी
लुपलुपाने डोली, तबहुँ वह वहीं खड़ा-गड़ा
ताकता रहा, हाथ में सुग्गे
के ठोरवाला

एक आम लिए !

4

बहुत दिनों बाद
क़स्बे के एक अस्पताल में, मिली वह
कुछ दिनों के लिए शेष, सिरहाने माई गोड़तारी बाबू थे, पता नहीं और कोई क्यों नहीं
था उसके लिए वहाँ, उसकी आँखें कहते-सुनते लबालब होने लगतीं, उसने कहा, ‘मुझे
एक आम खिलाओगे, सुग्गे के ठोरवाला, हेतु ने हाँ में सर हिला दिया
लेकिन क़स्बे में सुग्गे के ठोरवाला आम कहाँ
ढूँढ़े, वह तो, बस, बगीचे में
मिलता है

पर उसने माँगा है
ख़ाली हाथ कैसे जाए, अन्तत: निरउठ ख़रीद
लिया, सिरहाने रखते कहा, ‘इहे मिला, वह नाहीं मिला’, वह मुस्कुराई, लेकिन इतनी ही
जितनी उसके खित्ते में थी, उसने एक आम हेतु तरफ़ बढ़ाया और कहा, ‘काटो’, उसने
काटा तो आम पर दाँतों के निशान उग आए, तब अपने पास ले
जाते उसने कहा, ‘तुमने कहा, कतहुँ मिला ही
नाहीं, ई का है, का ई नाहीं
है, सुग्गे के

ठोरवाला आम !’