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सोज़ेचश्म / मणिभूषण सिंह

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हर कोई हर जगह ढूँढ़ रहा होता है:
अपने अक्स की तासीर!
कोई झील हूँ मैं।
चाहो तो झाँक कर देख लो...
अपनी परछाई!
 
वक़्त-बेवक्त
प्यासी होती है झील भी,
झील की प्यास...
कितनी गहरी!
कितनी बेताब!
 
ये सोज़ेचश्म जब बढ़ता है,
बेइंतहा बढ़ता है।
तिश्नगी और-और गहरी होती है।
उसे चाहिए होता है:
पुरनूर चाँद!
 
झील अपने सीने में समेट लेना चाहती है,
चाँद की ठंढी आग!
किरणों की उजास भरी लपटें।
तसव्वुरात की परछाईयाँ!