सविता, सावित्री और गायत्री के छंदकार
ऋषियों ने धर्म का जो निरूपण किया है,
वह धर्म तो सामयिक है, समय से निःसृत है,
किसने उसका ध्रुवीकरण किया है ?
वह धर्म कर्तव्य और आचरण के सम्बन्ध में
जीवन की सात्विक विद्या का बोध तो कराता है,
पर धर्म की इस सीमा तक हम स्थूलगत हैं.
यहाँ हम धर्म के स्वरुप गत ईश्वर तक ही सीमित हैं .
धर्म का वह ईश्वर विचारों की उपज है.
जो पृथक -पृथक होता है.
धर्म का वह ईश्वर जब तक हमारा लक्ष्य होगा
हम केवल आचरण के सन्दर्भ में, केवल धार्मिक ही रह पायेंगे .
शास्त्रों और वैचारिकता से जन्मा धर्म
तात्कालिक होता है , त्रैकालिक नहीं .
धर्म की सीमा के बाहर ही शाश्वत मोक्ष ,
अनाहत सुख और निहित अनन्यता
सुन्दरतर और सूक्ष्मतर होती है.
जब की आध्यात्म सामायिक है,
और मूल से निःसृत है.
अध्यात्म स्थूलगत , तत्वगत से आत्मगत होते हुए
एकाग्र तन्मय दृष्टि,
जहॉं विस्तार और गहराव एकाकार हो जायें .
प्रवेग, संवेग, उद्वेग और अंत में निरुद्वेग .
जीवन सृजनों के मूल में निराकार हो जाए .
आध्यात्मिकता हमें उस स्वयम्भू स्रोत में ले जाती है.
आध्यात्मिकता का प्रवाह मौलिक भण्डार से है.
धर्म का प्रवाह भौतिक भण्डार से है.
आध्यात्मिकता में कल्याण का संवर्धन निहित है.
धर्म में केवल लाभ का संवर्धन निहित है
धर्म विभाजित करता है जबकि आध्यात्मिकता जोड़ती है.
मेरे दिव्य संत का अनुभव गम्य सार है,
" की धर्म का अंत आध्यात्मिकता का प्रारंभ है,
आध्यात्मिकता का अंत वास्तविकता का प्रारंभ है
और वास्तविकता का अंत ही,
वास्तविक आनंद है."