कर्म शृंखला / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
अविरल अटूट शृंखला है,
तो कोई कर्म शृंखला है,
काम शृंखला है.
नाना रूपात्मक,विचारात्मक,संवेदनात्मक
परस्पर क्रिया द्वारा परम्परित, परस्पर श्रंखलित , परस्पर संपूरित
हर पदार्थ, हर व्यक्ति, हर काम
इसी अनादि, अनंत शृंखला की एक और कड़ी है.
आगत, विगत, वर्तमान कर्म शृंखला की ही लड़ी है.
कर्म सत्ता की शासक सत्ता , उसका अनुभूत पक्ष है.
इस अनुभूत सत्ता और कर्म सत्ता को अवकाश कहाँ ?
ब्रह्म की तरह ही चेतन और अवचेतन दोनों में ही निरंतर वर्तमान,
शाश्वत प्रवर्तमान , क्षण-क्षण वर्धमान ,
हम सशरीरी न भी रहें तो भी विद्यमान
क्योंकि हम सूक्ष्म कर्म परमाणु
आत्मा के साथ लेकर जाते हैं.
और निरंतर ब्रह्माण्ड में प्रसारित करते हैं.
यों तो हम शरीरी और अशरीरी दोनों तरह कर्म रत हैं.
कर्म तक तो हम मूल सत्ता के संविधान के पालक व् अंश हैं.
कर्म में काम, इच्छाओं , वासनाओं के जुड़ते ही विकारी सत्ता के दास
व् मौलिक विधान के अपभ्रंश हैं
आत्मा पर विकारी कर्मों के आवरण पर आवरण पड़ते जाते हैं.
हम ऊर्जा का व्यय और क्षरण करते जाते हैं.
अंत में केन्द्र व् मूल सत्ता से जुडाव व् ठहराव के
सारे सूत्र टूट जाते हैं.
पर चेतना की निम्नतर अवस्थाओं में भी चेतना की उच्चतर अवस्थाओं
का केंद्रीय बिन्दु,सभी अस्तित्वों के अंदर होता है.
किसी जागृत आत्मा का यदि कर्म श्रंखला से बाँध कर
यदि श्वास घुटने लगा हो,मोह ग्रंथि टूट गयी हो,
तो उसे अपनी काम वृति को निष्काम करना ही होगा.
निष्काम वृति कालजयी परम उपलब्धि है.
निष्काम वृति से कर्म निर्जरा हो तो
कर्म पतझर के पत्तों से झर जाते हैं.
निष्काम होते ही काम भी राम हो जाता है.
राम काम हो जाता है.
और काम का गंतव्य राम होना ही है
फ़िर हम ससीम नहीं असीम की कार्य सत्ता के अंश हो जाते हैं.
अतः कर्म शृंखला की अन्तिम और एकमेव कड़ी
निष्काम कर्म वृत्ति ही है.
इस भाव के बाद अन्य कडियों जुड़ना बंद हो जाता है.
फ़िर हर चन ,हम एक अभिछिन्न
निः स्पृह , निष्काम विचार , श्रुंखला द्वारा
सर्व शक्तिमान से गुँथ जाते हैं.