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मदिरा का दल-दल / साधना जोशी

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मदिरा दल-दल बन गया है
समाज के लिए
डूब गये हैं जिसमें
घर बार सुख षान्ति ।

जो मंजर दिखाते हैं
विलखते बच्चों का
खनकते बर्तनों का
डूबती मान मर्यादओं का
पत्नी की लाचारी का
माता की खामोषी का ।

नश्ट कर देती है वो
बच्चों का बचपन
युवाओं की क्षमतायें
बुर्जुगों का अनुभव ।


बाकी रह जाती है
लड़खड़ाता बदन
झागड़ता परिवार
उखड़ता समाज
जूझता बचपन
दुर्घटनाओें का नजारा
विधवाओं के ऑचल
माँ की सूनी गोद
बाप के साये से रहित बचपन
षराब की दुकाने सरकार की रकम ।

मिटा सकता हैं इसको
नारियों का सामूहिक संघर्श
समाज द्वारा लगायें प्रतिबन्ध, मुन की दृढता
परिवार के प्रति कर्तव्यों की समझ
विवेक की लगाम लगाकर हृदय की षक्ति को जगाओं
इस बुराई को ही समाज से भगायें ।