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प्रलय का भंवर / साधना जोशी

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प्रलय के भवंर में,
न जाने कौन कहाँ खो गया ।
उमड़े सैलाब में दबकर,
कैसे गहरी नींद में सो गया ।
तस्वीरे ही बाकी रह गयी,
सीने से लगाने को ।
कोई करुण वेदना न जा पाई,
उनको जगाने को ।

अब वक्त धैर्य की,
चाह रखता है ।
जीने के लिए मावन को,
आगे बढाने को कहता है ।
मिला है गर जीवन दान तो,
मुर्दा बनना तेरा काम नहीं ।
घास खाकर दस दिनों तक जीने वाले,
थक-कर बैठ जाना तेरा आराम नहीं ।

चिता के राख के ढेर पर,
रोने से अच्छा है कि,
हम घर के कोने पर,
एक छोटा दीपक जलायें ।
करुणा के तेल से,
धैर्य की बाती जलायें ।

नही ंतो वो जाने वाली आत्मा,
हमको कोसेगी ।
कि मुझे तो मौत ने,
उठा लिया दुनियां से,
तुम जिंदा होकर भी,
मुर्दा बनकर बैठे हो,
केवल आंसू बहाने को ।