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फेर अइबै / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा

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जिनगी के ऊबड़-खाबड़ राह में
हमरा कजौ समतल नय मिलल,
उठा-पटक से सब दिन जुझते रहलों,
बचपन से बार्धक्य तक
नागफनी पर चललों
अपना साथ बहुत के तरासलों, गढ़लों
जीवन-संघर्ष के हिमालय पर चढ़लों
खंदक-खाई मिलल ओजौ बढ़लों
जिनगी चलते रहे के नाम हे
संघर्ष जिनगी के प्रभात,
हार एकर धुंधला शाम हे।
हारो नय, अंधकार में दीपक बारो,
बाधा-सर्प के फन के कुचलो
रात के बाद ऐतै सुनहला प्रभात।
तोंहीं गाण्डीवधारी अर्जुन,
तोंही सारथी कृष्ण बनो।
आलोक-रथ पर सबार होकऽ
बाधा-ब्यूह में पौरुष के सर-संधानों,
तरकस से तीर निकालो
विपत्ति-घटा पर तानो।
हम भी संघर्ष पथी ही
मरवे लेकिन डरबैनय।
दीन-दुखिया, असहाय आ उपेक्षित के
आदर सम्मान से ओकर हक देलैवै,
ओकर अर्थ साम्य के गीत गैवै
नारी-मुक्ति के आंदोलन करवै,
ऊ शक्ति के अवतार है
सृजन आर पालन हार है।
नारी शीतल, मंद, सुरभित समीर हे,
शांति के शीतल छाया आउ निर्मल गंगानीर हे।

हम दरार के पाटवै
प्रेम-सेतु के निर्माण करवैं
राह के कंकड़ आ काँटा हँटैबे,
काम बच जैते तब फेर अइवै।
कुश-काँटा के उखाड़ऽ
अपना साथ दोसरो के तारऽ
हम पाटल-पुष्प ही
काँटा में खिलकऽ सुगंध बाँटबै
अशिक्षा, आउ गरीबी के मेटैबै
काम बच जैते तब फेर अइबै।