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मथुरा प्रसाद नवीन / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा

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मगही कविता-गंगा के तों नया भगीरथ
तोरे से बन गेलै बड़हिया नयका तीरथ
साम्य-धर्म के रहला तो सबदिन विसवासी
तों मथुरा ‘नवीन’ मगही के मथुरा काशी
सभे हलाहल पीते रहला व्यंग्यधार बन
मगही कविता-मंदिर के तोंतो सिंगारधन
कतना बगुला भगत तोरा से हार मानलक
मगही रास्ता के नयका के बीर भी जानलक
गीता ऐसन तोर गीत के बाँचलक सब
मगही के हे गर्व तोरा पर नाचलक सब
निर्भयता के तों नवीन जी आग हला
पौरुष के सब दिन ज्वलंत तों राग हला
एटम बम से बढ़कर तोहर कविता हल
कहलक सब मथुरा नवीन नव सविता हल
खींचैत रहला मगही में बड़की रेखा
लिखला बहुत बहुत कुछ रहलै अनदेखा
नीलकंठ बनगेला गरल के पी गेला
जहाँ-तहाँ कविता पढ़ला लगलै मेला
मगही कविता के मानल तों ध्रुवतारा
बड़ा मसीहा बनके रहला आवारा
गहन गरीबी में रहको सब दिन जीला
जब गेला तो आँख बनल सबके गीला
जगदम्बा के धरती पर के शान हला
बड़ाहिया के गुंबज, शिखर गुमान हला
दीन दुखी बेचारा सबके मीत हला
जानोहला हँसावे के तों बड़ीकला
भोर पहर के नया भुङुकबा हला बड़ा
साम्राज्य सामंतवाद से भिड़ते रहला सदा खड़ा
राते रात अन्हरिया कटलो बढ़ल गेला
ऊबड़-खाबड़ अर्थ-धरापर चढ़ल गेला
अब के कहतै चल रे गोला चल मैना
के कहतै हमही लाठी हमही पैना
दुर्बलगात मगर कविता हल अचल हिमालय
मगही कविता में बनतै नवीन देवालय।