भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पंख छुअन / संजय पंकज
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:03, 21 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय पंकज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जिस दिन से छूटी तितली की
नरम नरम पंख छुअन,
लगे रेंगने बिच्छू तब से
तन मन धड़कन-धड़कन
फुलवारी छूटी तो गमलों में
आ बैठी नागफनी
छूट गई पगडंडी पर वह
हँसी सुनहरी बनी ठनी
खुशबू छूटी खुशी गई फिर
तिर आई चुभन चुभन!
गलियों सड़कों चौराहों पर
लोग खड़े हैं बने ठने
कपड़ों में भी नंगे हैं सब
इक दूजे पर तने-तने
प्रीत प्यार की भाषा छूटी
रुधिर भरे नयन नयन!
चलने पर उभरे आते हैं
दर्द पुराने सारे ही
जिधर जिधर भी कदम बढ़ाऊँ
मिलते हैं अंगारे ही
बाहर हँसती बड़ी इमारत
भीतर है रुदन रुदन!