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तुम / मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर

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सचमुच, तुम कितनी भोली हो !

संकेत तुम्हारे नहीं समझ में आते,
मधु-भाव हृदय के ज्ञात नहीं हो पाते,

तुम तो अपने में ही डूबी
नभ-परियों की हमजोली हो !

तुम एक घड़ी भी ठहर नहीं पाती हो,
फिर भी जाने क्यों मन में बस जाती हो,

वायु बसंती बन, मंथर-गति
से जंगल-जंगल डोली हो !