बच्चनोत्तर 'इस पार-उस पार' / राघवेन्द्र शुक्ल
मैं आज चला, कल आओगे तुम,
परसों सब संगी-साथी।
दुनिया रोती-धोती रहती, जिसको
जाना है, जाता है।।
जीवन-पथ में उत्तरवर्ती की,
हमको चाल हंसाती है,
यह भूल सभी जाते, सबको
यह सृष्टि यूं ही ले आती है।
जितना भी चलते जाएंगे,
हम छोर न अंतिम पाएंगे।
हर बार अभीप्साओं से कुछ
पग ही पीछे रह जाएंगे।
लघु माने, तो आजीवन ही
रोना-धोना साधारण है,
है जहाँ कहीं भी तृप्ति वहां,
फिर सुख-दुख का क्या कारण है।
यह पथ के गड्ढों का दुःख है,
सरिता ने उनको रिक्त तजा
जिसके मग में कुछ गर्त नहीं
वह क्या खोता-क्या पाता है,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है।।
इक दीप हमारे अंदर था,
इक दीप हमारे बाहर था।
इक तिमिर हमारे भीतर था,
इक तिमिर हमारे बाहर था।
इक दीप जो अंदर था उसकी
छाया में जीवन हंसता था।
इक दीप जो बाहर था उसके
आतप से प्राण झुलसता था।
इक तिमिर जो भीतर था उसमें
सहचर दीपक मुसकाता था।
बाहर का तिमिर भयानक था,
बढ़ता था और डराता था।
कितनी नींदों का मूल्य दिया
इन दीपों की रखवाली में,
इक रोज प्रकृति का कोषपाल
सब कीमत लौटा जाता है।
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है।।
इक रोज मनुज के जीवन में
ऐसी भी सांझ उतरती है।
उज्ज्वल पथ की सुंदर चादर
इक रात कुतरने लगती है।
सपने आंखों से उतर कहीं
अंधेरे में खो जाते हैं,
अंतर्मन धुंधला जाता है,
सब दुश्मन-से हो जाते हैं।
हतप्रभ जीवन इस परिवर्तन का
हेतु समझने जाता है
तब बुद्धों-नचिकेतों-कृष्णों के
भाष्यों पर शीश लड़ाता है।
इस दुनियावी अंधेरों का इक
सूर्य ढूंढते आखिर में
इक रोज समय की बाती पर
जलता जीवन बुझ जाता है।
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है।।