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लौट चलें क्या! / राघवेन्द्र शुक्ल

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समय बहुत है अभी न बीता,
लौट चलें क्या!

अभी खून में तुम्हारे घर की
महक ज़रा भी घुली नहीं है।
अभी सांस भी शरद ओस की
सुधा-वृष्टि से धुली नहीं है।
अभी अकेली ही है, किसी से
मनस-चिरइया मिली नहीं है।
अभी है गीली मृदा मोह की,
हृदय की खिड़की खुली नहीं है।

अभी न प्रतिद्वंदी न धावक,
न हर्षाहर्षित न मन सभीता,
लौट चलें क्या!

अभी न रण में रक्त बहुत है
अभी न परिचय जीत-हार से।
अभी न निंदा का रस चखा है
अभी न परिचय पुरस्कार से।
अभी न सावन-बसन्त देखा
अभी न पतझड़ के पर्ण देखे।
अभी न दिन-रात पल्ले पड़े हैं
अभी न दुनिया के बहु-वर्ण देखे।

समर शुरू है कि इससे पहले
श्रीकृष्ण कर दें आरम्भ गीता,
लौट चलें क्या!