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प्रेम! / कुँअर रवीन्द्र
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मैंने जब भी
फ़क्क सफ़ेद कागज़ पर लिखा
प्रेम!
कागज़ धूसर हो गया
लिखा. दुःख
कागज़ हरिया गया
आदमी तो ठीक
कागज़ का रंग बदलना
मेरी समझ से परे हैं