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अपनी मर्ज़ी का रुख़ मैं अपनाऊँ / सोनरूपा विशाल
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अपनी मर्ज़ी का रुख़ मैं अपनाऊँ
काश मैं भी हवा सी हो जाऊँ
मान लेना के' तुम ज़हन में हो
जब भी मैं फूल जैसा मुस्काऊँ
क्या कहा,तुम पे मैं यक़ी कर लूँ?
याने इक बार फिर बिखर जाऊँ ?
ख़्वाहिशें तो हज़ार कर लूँ मैं
काश पूरी भी कोई कर पाऊँ
चाँद भी जा रहा है अब सोने
मैं भी अब थोड़ी देर सो जाऊँ