भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

होली / मनोज झा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:30, 23 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज झा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <po...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

होली मन का एक उमंग है,
मस्त जवानी का तरंग है,
होती आँखें चार यार से,
यही गुलाबी लाल रंग है।
थकी है सजनी इन्तजार कर,
नव यौवन पर वह शृंगार कर,
असमंजस इतउत विचार कर
तड़पत लख 'सूनी पलंग है'।
होली मन का...
कैसे मिलती थी चोरी चोरी,
आलिंगन चुंबन औ ठिठोरी,
सोच सोच शरमाये गोरी,
मन पतझड़ तन पर बसंत है।
होली मन का...
ऐनक से सौ-सौ सवाल कर,
गुजरे कल पर वह मलाल कर,
उभरे यौवन पर बाल डालकर,
करती उससे हास्य व्यंग्य है।
होली मन का ...