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निराला / नागार्जुन

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बाल झबरे, दृष्टि पैनी,
फटी लुँगी नग्न तन
किन्तु अन्तर दीप्त था,
आकाश-सा उन्मुक्त मन

उसे मरने दिया हमने,
रह गया घुटकर पवन
अब भले ही याद में,
करते रहो सौ-सौ नमन