भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं उस जन्नत को मांगूंगा / ईशान पथिक

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:21, 23 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ईशान पथिक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं पागल सा अल्हड़ कोई
जो मुंह में आया बोल दिया
कोई अपना लगा मुझे तो
दिल का हर कोना खोल दिया

मैं सब कहकर
अब बस थककर
इतना तो हूं जान चुका
चुप रहना है
चुप सहना है
इतना तो हूं मान चुका

पर खुदा कभी जब पूछेगा
मैं उस जन्नत को मांगूंगा
जहां कोई नहीं रोके मुझको
जहां कोई नहीं टोके मुझको

जो अपने थे सपने बनकर
कुछ आंसू केवल छोड़ गए
बस जिनके लिए मैं जीता रहा
वो ही मुझसे मुंह मोड़ गये

मैं रो-रो कर
सब खो-खो कर
इतना तो हूं जान चुका
चुप रहना है
चुप सहना है
इतना तो हूं मान चुका

पर खुदा कभी जब पूछेगा
मैं उस जन्नत को मांगूंगा
जहां कोई नहीं छोड़े मुझको
जहां कोई नहीं तोड़े मुझको

थे बोए प्यार के बीज जहां
वहां पेड़ उगे बस कांटों के
जिन्हें प्यार समझ कर खाए हैं
है हिसाब नहीं उन चांटों के

सबको देखा
सबकी सुन ली
इतना तो हूं पहचान चुका
चुप रहना है
चुप सहना है
इतना तो हूं मान चुका

पर खुदा कभी जब पूछेगा
मैं उस जन्नत को मांगूंगा
जहां कोई नहीं छांटे मुझको
जहां कोई नहीं काटे मुझको ।