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यह अपना / ग्युण्टर ग्रास / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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फैला हुआ यह देश,
कहते हैं जिसके लोकगीत
सुन्दर हैं पहाड़ियाँ इसकी,
सपाट है यह उत्तर में
घने बसे हैं लोग यहाँ,
अटारी तक इस घर में
बाप के डर से बच्चों का
छिपना जहाँ कभी थी रीत,
कोई जगह अब बची नहीं,
कुछ भी नहीं है छिपा यहाँ ।

खुले हैं हम इस क़दर,
प्रदर्शित करते चारों ओर,
हर पड़ोसी, रहता हो वह
दुनिया के किसी भी छोर
देखता है बदक़िस्मती,
खिलती हमारी ख़ुशी जहाँ ।

हालत हमारी यूँ ही है, बस,
बाज़ार की गर्मी के जनून में
होते जाते हैं मोटे ।
दुख और चिन्ता से भरा है पेट,
हमला होता है ग़रीबी का
खुले बाज़ार के कानून में;
यहाँ तक कि पापों के लिये भी
मिलती रहती है भेंट.
शान्त पड़ा नवम्बर देश,
मेहनती, बदहाल इस क़िस्मत से,
डर उसे रोज़े-कयामत का,
और बढ़ती हुई क़ीमत से ।

मूल जर्मन से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य