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वृष पर्व / अमरेंद्र

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तम को छोड़ क्षितिज पर जाता हेमकुम्भ, अलसाया,
उड़ता हुआ पवन के पथ से स्वर्णहंस है आया;
जाग रहीं कोने-कोने में साँसें हैं दीपों की,
मोती की बारात लगी है, महारास सीपों की।

नभ से नीचे उतर पड़े हैं एक साथ सब तारे,
नभ को छूते प्रासादांे, कोटों का लिए सहारे;
मुग्ध भाव से उतरा नीचे कर्ण बढ़ा फिर आगे,
मन की सारी शंकाओं को, अशुभ शकुन को त्यागे।

यह भी भय है राजमहल पर कैसी गहन उदासी,
किसी देव पर रखा हुआ ज्यांे नील कुसुम हो बासी;
खड़ी हुई सम्मुख सेनाएँ करे कर्ण का स्वागत,
ज्यों नक्षत्रा हो पंक्तिबद्ध से, पाकर निकट तथागत।

चलकर तेज-तेज चरणों से सम्मुख हुआ सुयोधन,
जैसे गले लगाया उसने, कुछ भी रहा न गोपन;
लगा कर्ण को, गिरि के भीतर सुलग रही है ज्वाला,
धुआँ-धुआँ-सा सानु सुनहरा, तम में घिरा उजाला।

पूछा, " ऐसी बात हुई क्या, जो प्रकाश पर तम है,
आँखें कुछ सूखी-सूखी-सीं, कण्ठ लगे कुछ नम है?
कभी नहींे यह मैंेने देखा कम्पित खुले गगन को,
आज सुयोधन बाँध रहा क्यों मन के मुक्त पवन को?

" क्या अनहोनी हुई या होगी, मित्रा तुरत बतलाओ!
और नहीं सम्भ्रम में डालो और नहीं भरमाओ!
मैं हूँ तब चौवाय, मित्रा पर अगर विपद-घन छाए,
प्राणों को नभ में उछाल दूँ, मन मेरा ललचाए. "

लिए कर्ण को साथ चला वह, कर में कर को डाले,
कितनी बातें उबल रही थीं, लेकिन सभी सम्हाले;
आते-आते अधरों पर जा छुपा कहीं था गोपन,
बस इतना ही बोल सका था, हो गंभीर सुयोधन।

" चलो कक्ष में पहले बैठें, तब होगी सब बातें,
कैसे काटी हैं मैंने वे कठिन प्रेत की रातें। "
चलकर आए गुप्त कक्ष में, कहने लगा सुयोधन,
एक-एक कर सब बातों का होने लगा वियोजन;

" कर्ण अभी भी भूल सका न हँसी-व्यंग्य की बोरी,
'अंधे का सुत अंधा ही है' जी पर नीम-निबोरी।
कृष्णा का वह व्यंग्य-तीर तो हिय में धँसा हुआ है,
गेहुँअन बन फुँफकार रहा है, मन में बसा हुआ है।

" मैं फिसला तो पांडव का था कैसा खुला ठहाका,
निश्चय काँप गया होगा तब रोम-रोम वसुधा का।
यह सब हुआ, नहीं दुख मुझको, दुख तो अब इसका है,
प्रश्न यहाँ तो उठा हुआ है कुंजरपुर किसका है?

" धीरे-धीेरे फैल रही है इन्द्रप्रस्थ की सीमा,
पांडव की बढ़ती जाती है छुपा भाव वह भीमा;
इसी भावना के कारण ही खांडव विपिन जला है,
मुझको लगता है संकट का बादल नहीं टला है। "

खांडव के जलने की बातें सुनीं, कर्ण अकुलाया,
क्या कुछ कहा सुयोधन ने फिर, कहाँ सुना, सुन पाया;
बन्द हो गई ं उसकी आँखंे अपने आप अचानक,
लगे घूमने उन आँखों में जलते दृश्य भयानक।

मन पर जमती-सी चिंता से झुका अचानक माथा,
सुनता क्या आगे की बातें, रविसुत बोल उठा थाµ
लंबे, हरे-भरे, वृक्षों का वह संसार जला है,
जो धरती पर पुरुष-प्रकृति की अद्भुत एक कला है!

" जो धरती पर सुख की छाया, साँसें हैं वसुधा की,
वन की ममता अगर मिले, तो कहाँ रहा कुछ बाकी!
उसी विपिन को लील लिया है पांडव की इच्छा ने,
घेर लिया है मन-प्राणों को कैसी इस पृच्छा ने!

" तब क्या नाग बचे ही होंगे, खग-कुल या फिर दानव,
राज्यप्राप्ति का लोभ हलाहल, उदधि-मथन का आसव।
आखिर में हो गया वही तो जिसका था अन्देशा,
जिसको टाल रहा था मन से, वही मिला सन्देशा। "

सहसा तनी रीढ़ हड्डी की कसीं मुट्ठियाँ औचक,
आँखें खुलीं कहीं पर इस्थिर; औघड़ का ही त्राटक;
बाहें फड़कीं, गहरी साँसें, टेढ़ी भौंहें क्षण में,
अधर, अधर से दबे हुए हैं, रक्तिम मुँह है प्रण में।

मुुष्ठिघात जंघों पर करता रह-रह कर रविसुत है,
कभी शांत तो कभी रौद्र में, मेघ-अनल से युत है;
मन में उठता द्वन्द्व-द्वन्द्व पर उसे रोक कर बोला,
दुर्योधन के सम्मुख अपनी शंकाओं को खोलाµ

" तो क्या साथ दिया न तब भी सुरपति ने ही आकर,
नागों को उस घोर विपद में, संकट में भी पा कर?
यह तो मित्राता के संग छल है, गला दबाना नय का,
दोषी तब सुरपति भी होंगे, इस विनाश, इस क्षय का। "

कहता आगे और कर्ण, पर बोला तभी सुयोधन,
एक-एक कर लगा खोलने, जो कुछ भी था गोपनµ
" नहीं, कहीं से इन्द्रदेव का इसमें दोष दिखाता,
यह तो झूठ सरासर होगा, कोई अगर बताता।

" सुरपति को बुढ़िया आँधी ने जो संवाद दिया था,
जो कुछ करना उन्हें तुरत था, वह सब तुरत किया था।
पल में बादल खूब गरजते, वन पर छा आए थे,
अब क्या करना, यह केशव तक सोच नहीं पाए थे।

" पर वायव्य तीर से बादल तितर-बितर हो आए,
खांडव वन से दूर-दूर घन बिना नीर बरसाए.
तब बचाव में सुरपति ने ही ऐसा तुरत किया था,
मंद्राचल के एक सानु को कर में उठा लिया था।

" और उसे फेंका था ऐसा, गिरे ठीक अर्जुन पर,
धूमकेतु ही भीषण कोई, या फिर यम का वामर,
पर गिरने से पहले ही वह टुकड़े में बँट आया,
सानु भाग पर अर्जुन ने कुछ ऐसा लक्ष्य लगाया।

" तीन खंड हो गिरा सानु वह, धूमकेतु ज्यों नभ से,
गिरा सिंधु सागर में एक तो, उदधि उबलता तब से।
खांडव वन पर गिरे शेष दो, बचे नाग क्या बचते,
तब विपरीत काल ही समझो; रक्ष कवच क्या रचते? "

" जिसके साथ लगा है केशव, उसका अहित कठिन है,
हस्तिनपुर की भाग्यरेख तो बनी हुई धामिन है। "
दुर्योधन के कंधो पर रख अपने खुले करों को,
कुछ क्षण शांत रहे रविसुत ने खोला था अधरों कोµ

" फिर तो कुछ करना ही होगा जितनी जल्दी हो यह,
बाहुशक्ति के लिए भला क्या ऐसा भी है दुर्बह!
क्या होता है, कृष्ण अगर अर्जुन के साथ खड़े हैं,
वन-वनवासी हित न समझेें, कैसे कहें बड़े हैं।

" राज्य हितों में भोले जन का हित कुचला जो जाए,
राजसिंहासन सम्राटों का भला ठहर कब पाए?
और नीति जब यही राज की, सीमा बढ़े, बढ़े धन,
ज्वालाओं के बीच भले ही जलते रहें अकिंचन।

" नहीं। रोकना ही अब होगा रुधिरपान का उत्सव,
भले खड़े हो पांडव के संग पीछे-पीछे केशव।
कुरुपति ने क्या सोचा अब तक बीते हुए समय में,
क्या कौरव का अन्तिम निर्णय रक्षा-व्यूह-विषय में? "

सुन कर यह मन शांत हुआ, तो कहने लगा सुयोधन,
खोल दिया था बँधे हुए मन के सारे ही बंधन,
" इसीलिए तो मित्रा तुम्हें है मैंने यहाँ बुलाया,
मिटे, सभी आसन्न विपद ही, प्रलयकाल की माया। "

रखे कर्ण के हाथ सुयोधन के कंधों पर कसते,
धीरे-धीरे बोल पड़ा वह मन में गहरे धँसतेµ
यह तो सबको विदित ज्ञात है, राजभोग के मद में,
डूबे हुए युधिष्ठिर कितने इच्छाओं के नद में।

" सच में जब सत्ता आती है लोभी, क्रूर करों में,
क्षय-विनाश का छा जाता है भय-आतंक नरांे में;
तब नारी की शील-प्रतिष्ठा खतरे में हो जाती,
हर क्षण एक भयावह चिंता उसको बहुत डराती।

" उस मदांध ढांेगी शासक को कौन सहन कर पाये,
जो समाज पर भूत-प्रेत की छाया-सा मंडराए!
मित्रा! युधिष्ठिर-इच्छाओं पर बाँध लगाना होगा,
भोगों के करका घन पर अब वाण चढ़ाना होगा।

" जो अब तक तरकश के भीतर रहे प्रतीक्षा में ही,
बाहर आने को व्याकुल हैं बस संकेतों से ही
कहा कर्ण ने जब ये बातें, कुछ गंभीर हुआ था,
तभी सुयोधन ने यह कह कर उसका हृदय छुआ थाµ

" मित्रा, तुम्हारे सिवा कौन है मेरा परम हितैषी,
बड़े नाम हैं ऊपर से कुछ, भीतर से विद्वेषी
और पिताश्री उनलोगों के सम्मुख बहुत विवश हैं,
द्रोण-भीष्म से कृपाचार्य तक कितने बड़े निकष हैं।

" एक शकुनि मामा ही इसमें, जिन पर करूँ भरोसा,
बाकी ने तो समय-समय पर कौरव को ही कोसा;
सुनो कर्ण, कल दीपपर्व है, होगा खेल जुए का,
चौपड़ पर खुलकर आएगा करतव बाज-सुए का।

" मामा की बस एक चाल में पाशा उलट चलेगा,
कोई हाथ उछालेगा, तो कोई हाथ मलेगा;
इन्द्रप्रस्थ के राजपाट का मैं हूँगा तब स्वामी,
वन-वन भटकेंगे पांडव सब कुंजरपुर के कामी।

" कर्ण, तुम्हारी प्रबल शक्ति पर मुझको बहुत भरोसा,
भूखा कैसे छोड़ भला दे भोजन रखा परोसा।
समझो मात युधिष्ठिर की है, फिर वनवास लिखा है,
इन्द्रप्रस्थ पर धूमकेतु एक गिरता मुझे दिखा है। "

मुस्काया था कर्ण अधर में, फिर गंभीर हुआ था,
चंचल जो मन दिखा अभी था, तत्क्षण धीर हुआ था;
हाथों में ले लिया सुयोधन के हाथों को; बोला,
छिपे हुए जैसे रहस्य को झटके में ही खोलाµ

" जो विनाश करता है वन के भोले जीव-मनुज का,
धरती क्या, नभ का भी कोई हो सकता है उसका?
वसुन्धरा पर बिखरा वन-वैभव देवों का वर है,
कुंज धरा का, आत्मज्योति है ऋषियों का यह घर है।

" उसका ही करता विनाश जो, उसको कौन सराहे?
ऋषिहंता का क्योंकर कोई साथ निभाना चाहे?
खांडव वन, वन के नागों का हंता, मेरा हरि है,
घोर अनय है। क्या होता है, पीछे-पीछे हरि है।

" मित्रा, मुझे प्रस्तुत ही समझो, पीछे नहीं हटूँगा,
जो सौगंध अभी लेता हूँ, कभी नहीं विसरूँगा।
मुझको अगर डिगाना चाहे नर क्या नारायण भी,
संभव नहीं, भले छिड़ जाए महाकाल का रण भी।

" लेकिन यह अनुनय है मेरा, लुंठित न हो पाए,
पांडव की जननी न फिर से वन का विपद उठाए!
झेल चुकी है बहुत दुखों को एक अकेली नारी,
क्या समझेगा राजभोग से लिपटा जो संसारी।

" पांडव की माता गंगा-सी मन से मुझे लगी है,
अंगभूमि से बहकर जो हस्तिनपुर में उतरी है।
सुधि उसकी आते ही मेरा मन चानन बन जाता,
वही मेघवन, ज्येष्ठगौड़, मंद्राचल मुझे बुलाता।

" मित्रा, समाधि-सी वह सुधि होती, कैसे मैं बतलाऊँ,
हस्तिनपुर में रहकर भी चम्पा में आऊँ-जाऊँ"
उतरा था जो मणि आभा का मेघ कर्ण के मुँह पर,
लगा सुयोधन को; चंचल हो भू पर शिशिर-विभाकर।

देखा कभी नहीं था उसका ऐसा रूप विगत में,
दुर्योधन ने कहा, कहा जो, सीधे भाव विनत मेंµ
कर्ण तुम्हारी इस इच्छा का ध्यान रहेगा मुझको,
किसी दशा में हूँगा, लेकिन ज्ञान रहेगा मुझको।

" चलो प्रतीक्षा में ही होंगे मामा और दुशासन,
इन्द्रप्रस्थ का मेरा होगा शासन और सिंहासन।
तुम पर बहुत भरोसा मुझको कुछ विपरीत कहाँ है,
कर्ण, तुम्हारे बिना सोचता मेरी जीत कहाँ है।

" तुम्हें देखकर अर्जुन तक की नाड़ी भी रुक चलती,
और भीम के बल की आँधी सहमी झुक-झुक चलती;
औरों की साँसों का कुछ भी पता कहाँ चलता है,
दिखा कर्ण का तेज ज़रा क्या, हिम-सा रिपु गलता है।

भले अंग के महा ताल में कंचन कमल खिला है,
पूर्व जन्म के किसी पुण्य-सा मुझको कर्ण मिला है।
जिसको पाकर कुरुपति का दुख सुख में बदल गया है,
नभ में गिरता ज्यों त्रिशंकु ही फिर से सँभल गया है। "

सुनी सुयोधन की बातें, तो झुकी कर्ण की आँखें,
सोनचिरैया की मुँदती-सी खुली हुई दो पाँखें;
दीपों के उठते प्रकाश में अब तो छाया छोटी,
पाशा पलट रहा है जिसमें, उलट रही है गोटी.