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पुनर्नव पर्व / अमरेंद्र

Kavita Kosh से
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चुप हुये धनवंतरी अधिरथ-कथन से,
जम गया हो रक्त सारा, शून्य-सी हो देह;
और फिर तो कंठ भीगा, वचन भीगे,
इस तरह कि कंठ में उतरा हुआ हो मेह।

" कह रहे हैं क्या, नहीं विश्वास होता,
दे दिया कुंडल-कवच को छील अपनी देह;
आह तक न की, नहीं की देर कुछ भी,
रक्त उतरा जम गया; ज्यों रक्त रंजित रेह।

" यह अघट, कैसे घटा, अब क्या सुनूँ मैं,
बैठिए अधिरथ, रखे धीरज, हृदय कर शांत;
ढूँढ लाऊँ जो ज़रूरी बूटियाँ हैंे,
इस तरह क्यों आप विचलित हो रहे हैं श्रान्त!

" अंग का मंदार औषध है, अमय है,
शव यहाँ शिव हैं, जड़ों में फूटते हैं प्राण;
पापहरणी का लगे जो जल अचोके
तीनों तापों से समझिए एक क्षण में त्राण।

" पापहरणी का सलिल संजीविनी है,
ताप ही क्या, मृत्यु भी इससे बहुत भयभीत;
इन्द्र का वह शोक क्या धुलता कभी भी,
जो नहीं मिलता सलिल के पुण्य का नवनीत?

" शाप गौतम का अडिग था, डिग गया पर,
इस लहर से वह लहर थी हो गई चिर-शांत;
आ गये हैं तात, तो सब कुशल होगा,
धैर्य धरिए, मन नहीं हो इस तरह उद्भ्रांत! "

ले लिया जड़मूल, बूटी, जल कलश में,
चढ़ गए धनवंतरी रथ पर लिये सब साथ;
छोड़ धरती को उठा रथ चार अँगुल,
सारथी अधिरथ कशा पर हैं जमाये हाथ।

अब भी अधिरथ पर वही छाया हुआ है,
ज्यों, प्रलय के मेघ-सा ही, घिर रहा अवसाद;
हो भले ही वेग रथ का प्राणवायु में,
पर वही अब भी विगत से मौन का संवाद।

देख यह धनवंतरी ने उससे पूछा,
" क्या पता कुछ चल सका कि वह छली था कौन?
या सभी के पूछने पर भी शिला-सा
रह गया था; काठ बन कर शान्त, बिल्कुल मौन? "

सील-सी आँखें घुमी धनवंतरी दिश,
बर्फ-सी शीतल गिरा, तो हो जमा-सा कंठ;
खींच कर साँसें, सजग कर चेतना को,
लग गये कहने हैं अधिरथ तोड़ कर जड़ शंठµ

" तात, जो कुछ आपने सोचा, न मिथ्या,
पर सुयोधन प्रश्न पर हो कर विवश वसुषेन,
कह गया, बिन कुछ छिपाए अंश भर भी
रोक कर अपने वसन से वह रुधिर का फेनµ

' मित्रा, तुमसे झूठ बोलूँ क्या, सुनो सब,
रात में आए पिता थे, श्याम तन-सा वर्ण,
और बोले, ' विप्र बन कर इन्द्र छली वह
आ रहा है, सजग रहना, पुत्रा मेरे कर्ण!

' ये तुम्हारे कवच-कुंडल प्राणरक्षक
जो विजय के ध्वज-पताका, अस्त्रा के बिन अस्त्रा;
आँधियों के बीच बालक सहमे शिशु पर
ये कवच-कुंडल तो माँ के वक्ष, आँचल, वस्त्रा।

' अब इन्हें ही छल-कपट से इन्द्र चाहे
दान में ले लूँ, तुम्हारी जीत पर हो जीत;
जो सफल वह हो गया इस कर्म में तो,
पांडवों की जीत समझो; भय से हूँ भयभीत? '

" कर्ण ने छूए चरण फिर से पिता के,
और बोला, ' आप क्या यह कह रहे हैं, तात;
पुत्रा हूँ मैं उस पिता का जिनका जीवन
दान की उज्ज्वल विभा से हो रहा अवदात!

' जो नहीं देते प्रभा इस लोक को तो
पिंड भर होता तमस का, सब अगोचर, हाय;
जब पिता की प्रेरणा ही सामने हो
दान से कैसे डिगूँ फिर, मैं बना निरुपाय!

' पुत्रा जो अपने पिता के कर्म-पथ-पर
बिन बने विचलित हमेशा ही रहे गतिशील,
वह मृत्यु को मात देता ही रहा है
जानता हूँ, काल उसको क्या सकेगा लील।

' यह पिता ही, संतति में प्राण बनकर
स्वर्ग तक उसको उठाए बढ़ रहे दिन-रात;
गिरि-शिखर पर मेघ का संगीत जो हैं,
मानसर में खिल रहे युग से धवल जलजात!

' क्या कहूँ मैं मित्रा, देखा तात को तो
भर गया मन में नया ही वेग ले उत्साह;
देखकर शायद उसी को ही पिताश्री
जा चुके थे फिर उसी तम में उलटकर, आह! '

चुप हुए अधिरथ सुना कर सब अकथ को,
सामने फिर कर्ण की थी रक्त लथपथ देह;
देख कर धनवंतरी विचलित हुए थे,
कह उठे यह तोड़ते-से बीच के संदेहµ

"फिर किया होगा वही तो, जो कहा था"
बोल कर धनवंतरि चुप हो गये थे शान्त,
कपकपाए थे अधर, दृग डबडबाए
छा गया आँखों के आगे नील लोहित प्रान्त।

कुछ न अधिरथ ने सुना, कहता गया ही
लग गए थे पंख मन को, रथ-हयों के संग;
बस दिशाओं में निनादित नाद रथ का
चढ़ गया था लालिमा पर घोर नीला रंग।

"मैंने कुछ पूछा, नहीं उत्तर मिला क्यों?"
सुन सजग अधिरथ हुए थे, छोड़ सुधि का न्यास;
शून्य से नीचे उतर कहने लगे सब,
दृष्टि से देखे हुए का दे रहे आभासµ

" तात, जब पहुँचा वहाँ पर जानकर ही सब,
रह गया सिल देखकर, था कर्ण फिर भी शांत;
सोच भी पाया नहीं मैं देर तक ही,
इस तरह भी थिर कहीं रहता कोई आक्रान्त?

" कह रहा था, ' धर्म ही मैंने निभाया है,
दान तो है अंगभूमि की पुरातन रीत;
अंग के बलि और शिवि की वे कथाएँ
दूर गिरि पर ज्यों पहाड़ी गूँजता संगीत।

' परशुधर के दान को ही क्योें भुलाएँ,
दे दिया था पृथ्वी को स्वर्णवेदी साथ;
और फिर मंदार पर जो जा बसे थे
द्रोण को भी मंत्रा-आयुध दे के खाली हाथ।

' पूर्वजों की रीति को रक्खा जुगाकर,
इसलिए तो कवच-कुंडल का किया है दान;
मैं पला जिस भूमि पर, जन्मा जहाँ मैं,
कर सके मुझपर हमेशा देश वह अभिमान।

' दान कुंडल-कवच का क्या दान केवल,
इस बहाने रख लिया है हर किसी का मान;
जीत निश्चित कर गया हूँ पार्थ की मैं,
माँ का, गुरु के संग पिता का, कर पितामह-ज्ञान।

' अब महाभारत मचेगा दृश्य भर को,
हो गया है युद्ध का वह लक्ष्य ही अब शेष;
जीत का या हार का अब अर्थ क्या है,
प्राण का संकल्प ही जब हो गया निःशेष।

' पर शिराओं मंे प्रवाहित रक्त अब भी,
कसमसाती है भुजाओं में कोई कुछ चाह;
जानता, प्रतिकूल है मुझसे विधाता,
भीम गज को खींचता है एक लघु-सा ग्राह। '

चुप हुए अधिरथ सुना कर कर्ण-मन को,
पर कहाँ चुप रह सके, फिर मुँह से फूटे बोल,
हो गई साकार पीड़़ा बाँह खोले,
रख दिया धनवंतरी के सामने मन खोलµ

" हँस पड़ा था जब कहा था कर्ण ने यह,
पर सुयोधन को निरख कर हो गया था शांत;
आग आँखों की हुई थी शान्त-शीतल,
एक क्षण को छा गया था हर दिशा में ध्वांत।

मन सुयोधन का समझ कर भाव सारे
कर्ण ने इतना कहा, ' मैं भाग्य पर बलवान;
मैं भुजा की शक्ति को बस जानता हूँ
देवता मेरे लिए, मेरे लिए भगवान!

' क्या हुआ जो कवच-कुंडल से रहित हूँ,
मैं अभी भी वह कि जिससे काँपता है काल;
हैं अभी भी मुट्ठी में सारी दिशाएँ,
काँपते नरपति दिशा के, काँपते दिक्पाल।

' मैं महाभारत-विजय को मित्रा-कर में
रख सका न, तो मेरा यह देह धरना व्यर्थ;
क्या हुआ जो कवच-कुंडल हीन हूँ मैं,
शक्ति की कुछ भी कलाओं से नहीं असमर्थ।

' मित्रा यह जो सामने हैं अस्त्रा रक्षित,
विप्रभेषी देवपति का है दिया प्रतिदान;
ग्लानि, पश्चाताप से ही मुक्ति खातिर
रख गये हैं सामने अबहित-विहित सामान।

' कह गये, वज्रास्त्रा है, न चूकता है,
चोट खाकर देवता क्या, प्राण खोते काल;
बस यही समझो, गरुड़ है चोंच खोले,
काल इसके सामने तो हाथ भर का व्याल।

' पर छुटेगा जब, नहीं लौटेगा फिर तो
शक्ति इसकी आ मिलेगी मुझमें, हो यह ध्यान;
छोड़ जाता हूँ इसे स्वीकार करना,
मर रहा हूँ ग्लानि से, मुझको मिले परित्राण! '

' रथ चढ़े रख कर इसे, मुड़कर न देखा,
देवपति की जीत की कैसी सिहरती हार;
वज्र पत्थर की तरह तब से पड़ा है,
किस तरह से अंगपति यह कर सके स्वीकार!

' दान को जिसने दिया है, दान लेगा?
मैं नहीं हूँ जानता, है दान का प्रतिदान;
हो भले ही रीति सुर की या असुर की,
पर नहीं इसमें छिपा है अंग का सम्मान। '

मणि दिखे तम में, दिखीं आँखें उसी-सी,
भर गये गौरव से अधिरथ, कर्ण को कर याद;
हट गया हो एक पल को शोक सारा;
कर रहा हो भोर जैसे रात से संवादµ

" सुन हुआ विचलित सुयोधन, हर्ष भी था,
वज्र ही अब कवच-कुंडल का करेगा काम;
खींच लायेगा यही वह रात अर्जुन की,
हो भले कर मंे लिए दिव घूमती हो शाम।

" मुस्कुराया कर्ण, मन की ताड़ बातें,
कुछ नहीं बोला, छिपाये ही रहा वह भाव;
रक्त लथपथ देह की पीड़ा से बढ़कर
चोट करता था हृदय पर मन का रिसता घाव।

" बुदबुदाया, ' दान का आनन्द क्या है,
मित्रा, तुमने आजतक जाना नहीं यह राज;
बस-सिंहासन-मोह में डूबे रहे तुम,
भाइयों पर गिद्ध बनकर और बनकर बाज।

' अनुभवों का लोक अपने पास भी है,
कर न पाए वृद्ध जन के ज्ञान का सम्मान;
हैं विदुर, गुरु द्रोण, कृप भी, हैं पितामह,
साथ में संजय से ज्ञानी, कब रहा यह ज्ञान!

' जो बुजुर्गों की प्रभा से दूरगामी
सीख लेता ही नहीं है अपने मद में चूर;
संकटों को वह निमंत्राण दे रहा है,
हो रहा अपने लिए ही बहुत निर्दय-क्रूर।

' मित्रा, मन की मानते तो यह न होता,
घिर रहे हैं नाश के जो मेघ काले घोर;
प्राण लोगे या पलट कर प्राण लेंगे!
खिंच गई है डोर धनु की अब तो दोनों ओर। '

रुक गये सहसा, कहे क्या आगे, अधिरथ,
किस तरह से कर सके उस दृश्य को साकार;
पर लगा, जो कुछ हुआ, कहना कठिन है,
बस यही इतना कहा होकर विवश लाचारµ

" कुछ न समझा था सुयोधन ने समझकर,
मुग्ध था कुछ सोचकर; मन में विजय का भाव;
और मैं व्याकुल बना निज देश आया,
आपके बिन कौन है, जो भर सकेगा घाव! "

सुन लिया, सब कुछ सुना धनवंतरी ने
कर लिया आँखों को अपनी, एक पल को बंद,
और फिर कहने लगे अवरोह में हो
झर रहे हों, शिशिर की ही ओस-सा मकरंदµ

' ठीक मधुसूदन करेंगे, मैं कहाँ कुछ,
पर कहंे अधिरथ, सही में इन्द्र ही था विप्र?
किस तरह देखा गया होगा भला यह;
क्या नहीं जड़ हो गई थी बुद्धि उनकी क्षिप्र? '

भर गया अवसाद से मन प्रश्न सुनकर,
क्रोध के कण भी उसी में; जल रहे खद्योत;
बोध कर मन दीन स्वर में जो कहा, वह
ग्रीष्म के जलकुंड से झरता विरल जलस्रोतµ

" झूठ क्या, सुनिए, सुनाऊँ! इन्द्र तत्क्षण
ले कवच-कुंडल उड़े रथ पर, उड़ाए धूल;
पर रहा है पुण्य के विपरीत जो कुछ
काल भी उस पाप के होता कहाँ अनुकूल?

" फँस गया था रथ ज़रा ही दूर जाकर,
वह भी सूखी रेत के ही बीच रथ का चक्र;
देवपति ने रथ घुमाया सोचकर कुछ
हो गई थी नियति निश्चित, काल भी था वक्र।

" आ गए फिर कर्ण के सम्मुख मलिन-सा,
गिड़गिड़ाए, ' कह नहीं सकता किया जो पाप;
यह अकेले भोगना होगा मुझे ही,
कौन लेता है किसी के सर चढ़ा अभिशाप।

' कर्ण, तुम-सा कौन दानी सृष्टि-भर में,
दीन पर इतने दयालु यह जगत विख्यात;
दे रहा वज्रास्त्रा यह स्वीकार करना,
पाप से कुछ मुक्ति मिल जाएगी मुझको स्यात। '

" और तत्क्षण फिर उसी रथ से हवा में,
खो गए थे छोड़ पीछे काँपते दिक्काल।
कुछ नहीं मैं समझ पाता हूँ अवश-सा,
किस विधाता की रची है कूटनीति-चाल।

" सामने खोले हुए है समर, भैरव,
नाचता है सौ पगों से नाश का वैताल;
हाथ में ज्वालामुखी को धर उड़ाता,
बिजलियाँ, बादल, प्रलय को, क्रोध में है काल। "

चू गये कुछ स्वेद कण थे भाल-भ्रू से,
झुरझुरी-सी कुछ उठी थी देह में तत्काल;
पटपटाए थे अधर; निःशब्द अधिरथ,
देख यह धनवंतरी बोले हटाकर जालµ

" हाँ सुना मैंने भी है जो युद्ध सम्मुख,
चल पड़े हैं कर्ण के बेटे सभी ही सात;
जो नहीं है, साथ तो वृसषेन केवल...
वाह अधिरथ! हस्तिपुर पहुँचे तो पहुँचा प्रात। "

रथ धरा से सट गया, है नाद गूँजा,
रेत की आँधी उड़ी, फिर जम गई, सब शांत;
आ गए अधिरथ लिए धनवंतरी को,
है जहाँ पर कर्ण; घेरे आग को ज्यांे ध्वान्त।

ज्यों मिली आँखें, खिले शतदल कमल के,
मानसर के वक्ष पर मकरंद का है नृत्य;
बूँद भर जल पापहरणी का, असर यह
दिख रहा मंदार के औषध का अद्भुत कृत्य।

कर नमन धनवंतरी को, तात को भी,
ले लिया वज्रास्त्रा कर में कर्ण ने, असि-धार;
एक क्षण देखा उसे भरपूर आँखों से,
तौलता हो कौरवों की जीत का ही भार।

स्वर्ण-गिरी-सा कर्ण का है अंग शोभित,
ज्यों तमस को चीर कर उठता अमा का भोर;
कौरवों के मोद की सीमा नहीं है,
हास का, उल्लास का, अभिनव उठा है शोर।

ढोल, तुरही, झाल, झांझर पर नगाड़े,
गूँजते हैं शंख; जैसे, हों विजय के नाद;
हर्ष उठकर छा रहा है जब गगन पर
हस्तिपुर में ही कहीं है घिर रहा अवसाद।