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आकर्षण / महेन्द्र भटनागर

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जितने पास आता हूँ तुम्हारे इंदु
उतने ही सँभल तुम दूर जाते हो !

पहले ही बता दो ना
पहुँचने क्या नहीं दोगे ?
पहले ही अरे कह दो
कि मेरा प्यार ना लोगे !

जितना चाहता हूँ ओ ! तुम्हें राकेश
उतने ही बदल तुम दूर जाते हो !

आओगे न क्या मेरे
कभी एकांत जीवन में ?
क्या अच्छा नहीं लगता
विहँसना स्नेह-बंधन में ?

जितना चाहता हूँ बाँधना ओ सोम !
उतने बन विकल तुम दूर जाते हो !

ऊपर से खड़े होकर
निरंतर देखते क्यों हो ?
किरणें रेशमी अपनी
सँजो कर फेंकते क्यों हो ?

जैसे ही अकिंचन मैं उलझता भूल
वैसे ही सरल ! तुम दूर जाते हो !