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ये कैसा साधू है, / राजमूर्ति ‘सौरभ’

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ये कैसा साधू है,
मन तो बेक़ाबू है।

ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू है,
तू ही तू हरसू है।

पर्वत सा अन्धेरा,
नन्हा सा जुगनू है।

बचिए तन्हाई से,
तन्हाई बिच्छू है।

सुख रूपी सिक्के का,
दुख भी इक पहलू है।

इक शीशा, इक पत्थर,
मैं ,मैं हूँ, तू ,तू है।

हर क़तरा पानी का,
समझो तो आँसू है।

मैं भोली गर्दन हूँ,
वो पागल चाकू है।

दरिया है आँखों में,
मुट्ठी में बालू है।

पीड़ा है रुनझुन में,
घायल हर घुँघरू है।

साँसों की बस्ती में,
ये कैसा कर्फ़्यू है।
ये कैसा साधू है,
मन तो बेक़ाबू है।

ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू है,
तू ही तू हरसू है।

पर्वत सा अन्धेरा,
नन्हा सा जुगनू है।

बचिए तन्हाई से,
तन्हाई बिच्छू है।

सुख रूपी सिक्के का,
दुख भी इक पहलू है।

इक शीशा, इक पत्थर,
मैं ,मैं हूँ, तू ,तू है।

हर क़तरा पानी का,
समझो तो आँसू है।

मैं भोली गर्दन हूँ,
वो पागल चाकू है।

दरिया है आँखों में,
मुट्ठी में बालू है।

पीड़ा है रुनझुन में,
घायल हर घुँघरू है।

साँसों की बस्ती में,
ये कैसा कर्फ़्यू है।