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सपनों के सौदागर / सुभाष राय

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उन्नत, भव्य और चमकता हुआ ललाट
धुले हुए सफ़ेद कपड़ों में वे कोई देवदूत लग रहे थे
अख़बारों में रोज़ उनकी चमत्कार कथाएँ छप रही थीं

कोई याद नहीं करना चाहता था वह काला दिन इस मौक़ै पर
कोई नहीं था उनके साथ बूढ़ी बीमार माँ के अलावा
माँ को क्या मालूम कि खँजर उसी के घर से मिला था
वह कुर्ता भी अदालत में पेश किया गया था
जिस पर कुसुमा के लहू की छींटें थीं
उसकी मौत पर पूरा गाँव रोया था
सबने बहुत कोसा था उन्हें
मन्नतें माँगी थीं उम्र क़ैद की

मगर वे सज़ा से बच निकले
लक्ष्मी बरसने लगी उन पर
ज़मीनें ख़रीदीं, स्कूल बनवाए
देखते ही देखते ग़रीबों के मसीहा बन गए

जिस जज से उन्हें सज़ा का अन्देशा था
मारा गया एक दुर्घटना में
गवाहों ने समझ लिया जीवन का सच जीने में है
बेवजह पहियों के नीचे आकर आत्महत्या करने में नही
उन्हें समझदारी का इनाम मिला, वे सभी ख़ुश हैं

शहर सजकर तैयार था विकास के पैगम्बर की अगवानी में
मानो उनके आते ही सब चमन हो जाएगा
पार्कों में फूल खिल उठेंगे, झुग्गियों पर छतें चढ़ जाएँगी

जुलूस निकाला गया, जमा हो गया पूरा शहर
वे आए हाथ लहराते सबको अभयदान देते हुए
— अब तुम्हें कुछ नहीं करना है
— जो करना है, मुझे करना है
तालियाँ गड़गड़ा उठीं
जैसे आसमान से बिजली
टूटकर गिर रही हो धरती पर
अगले क्षण निशब्द मौन, केवल प्रवहमान प्रवचन
ले आएँगे गँगा उन गाँवों तक
जहाँ अभी सड़कें नहीं पहुँची
बिजली के खम्भे नहीं गड़े
ख़त्म होगी भूख और प्यास की करुण-कथा
मिट्टी में बदल गए पुरखे जी उठेंगे मृत्यु की नीन्द से

बार-बार सपने बेचते मसीहा फ़रेब की चादर
जनता पर फेंककर निकल जाते हैं
कुछ और झूठे सपने गढ़ने