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मुझमें तुम नया रचो / सुभाष राय

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सूरज उगे, न उगे
चान्द गगन में उतरे, न उतरे
तारे खेलें, न खेलें

मैं रहूँगा सदा-सर्वदा
चमकता निरभ्र, निष्कलुष आकाश में
सबको रास्ता देता हुआ, आवाज़ देता हुआ
समय देता हुआ, साहस देता हुआ

चाहे धरती ही क्यों न सो जाए
अन्तरिक्ष क्यों न जम्भाई लेने लगे
सागर क्यों न ख़ामोश हो जाए

मेरी पलकें नहीं गिरेंगी कभी
जागता रहूँगा मैं पूरे समय में, समय के परे भी

जो प्यासे हों, पी सकते हैं मुझे
अथाह, अनन्त जलराशि हूँ मैं
घटूँगा नहीं, चुकूँगा नहीं

जिनकी सांसें उखड़ रही हों
जिनके प्राण थम रहे हों
भर लें मुझे अपनी नस-नस में
सींच लें मुझसे अपना डूबता हृदय
मैं महाप्राण हूँ, जीवन से भरपूर
हर जगह भरा हुआ

जो मर रहे हों, ठण्डे पड़ रहे हों
वे जला लें मुझे अपने भीतर
मैं लावा हूँ गर्म दहकता हुआ
मुझे धारण करने वाले मरते नहीं कभी
ठण्डे नहीं होते कभी

जो अन्धे हो चुके हैं लोभ में
जिनकी दृष्टि जीवन का
कोई बिम्ब धारण नहीं कर पाती
वे बेहोशी से बाहर निकलें
सम्पूर्ण देश-काल में मैं बाँहें फैलाए खड़ा हूँ
उन्हें उठा लेने के लिए अपनी गोद में

मैं मिट्टी हूँ, पृथ्वी हूँ मैं
हर क्षण जीवन उगता, मिटता है मुझमें
मैंने तुम्हें रचा, आओ, अब तुम
मुझमें कुछ नया रचो