भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीने की समझ / सुभाष राय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:06, 27 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुभाष राय |अनुवादक= |संग्रह=सलीब प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसने कहा —

मै चुप रहना भूल गया था
फिर से सीख रहा हूँ
जब भी चुप होता हूँ
दुनिया भर‌ की चीख़ें गूँजने लगती हैं मेरे कानों में
चुप रहकर ही सुन सकता हूँ
दग्ध, वँचित और कातर आवाज़ें

एक बार चुप हुआ तो लगा कि मैं
अकेले रहना भी भूल चुका हूँ
जब भी अकेले होता हूँ
सारी दुनिया के साथ हो जाता हूँ
सारी दीवारें ढह जाती हैं भरभराकर
भीड़ में रहते हुए अकेले होना बहुत कठिन है

उसने कहा —

मैं हमेशा सीखते रहना चाहता हूँ
सीखना ही जीना है
बहुत कुछ सीखा है इस जगत में रहते हुए
वैभव का सँग्रह, स्वार्थ का साधन
नहीं सीख पाया लेकिन
सौ प्रतिशत दूसरों के लिए जीना
और इस तरह अपने लिए पूरी तरह मर जाना

मैं‌ समझ रहा हूँ यह सबक कठिन है बहुत
जिस दिन मुझे मरना आ जाएगा
उसी दिन से समझने लगूँगा जीना भी

मैने पूछा, यह कोई कविता है ?

उसने कहा —

यह कविता हो न हो पर इसके होने से
जीवन एक कविता में बदल सकता है