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अकेले कंठ की पुकार. / अजित कुमार

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गीत जो मैंने रचे हैं

वे सुनाने को बचे हैं।


क्योंकि-

नूतन ज़िन्दगी लाने,

नई दुनिया बसाने के लिए

मेरा अकेला कंठ–स्वर काफ़ी नहीं है।

--इस तरह का भाव मुझ को रोकता है।

शून्य, निर्जन पथ, अकेलापन :

सभी कुछ अजनबी बन-–

मुखरता मेरी न सुनता

--टोकता है ।


इसलिए मुझ को न पथ के बीच छोड़ो

बेरुखी से मुँह न मोड़ो,

हो न जाऊँ बेसहारे ,

इसलिए तुम भूलकर वैषम्य सारे –

तालु–सुर–लय का नया सम्बन्ध जोड़ो।

ओ प्रगतिपन्थी । ज़रा अपने कदम इस ओर मोड़ो ।


राग आलापो, बजाओ साज़ ,

कुछ ऊँची करो आवाज़ –

मेरा साथ दो।

यह दोस्ती का हाथ लो।

फिर मैं तुम्हारे गीत गाऊँ,

और तुम मेरे:

कि जिससे रात जल्दी कट सके ,

यह रास्ता कुछ घट सके


हम जानते हैं:

विगह–दल तक साथ देंगे

भोर होते ही, उजेरे... मुँहअंधेरे।