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बोध की ठिठकन- 4 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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अपने आत्यंतिक स्वरूप को
पहजान सकूँ
इसीलिए
तुम्हारी घाटी के तरल स्पंदन की
टोह में
मैं कान पाते हूँ.

मैं प्रयोग रत हूँ.

मैंने दिशाओं से अपने को
काट रखा है.

पड़ोसी परिदृश्यों के
कठिन कोमल संस्पर्श
प्रवासी तरंगों का जुलूस बनाए
मेरे त्वचा-द्वारों पर
सनसनी फैलाए है.

अनुपल घनी होती
यह सनसनी
मेरे पोरों में सिहरन जगाती है.

मेरे प्रयासों के तहत
मेरी अस्मिता में
विपरीत ध्रुवों वाली
दो अतियाँ रच जाती हैं
मैं तनावग्रस्त हो जाता हूँ.

लेकिन अब
अपनी दृष्टि-दिशा में
मैंने एक मोड़ दिया है.

अब मेरी अस्मिता में
अपसारी एवम अभिसारी
द्विधा तरंगों का
अभिस्वीकरण है.

मेरी कोशिश है
मेरे पोर पोर में
इनकी धड़कनों का प्रतिसंवेदन
रेंगता रहे.

अपनी अंतर्बाह्य गतिविधियों का
मैं गवाह भर हूँ.

कह नहीं सकता
इन क्षणों की
अनुभव बनती अनुभूति का
आह्लाद है अथवा
कोई आकस्मिक अतिरेक
कि पंखुरियों में बसती
खुसबू की तरह
मेरी काया के परमाणुओं में
कुछ मनोमय जुड़ता जा रहा है
कलियों की किलावट की तरह