Last modified on 28 जुलाई 2019, at 12:46

बोध की ठिठकन- 5 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:46, 28 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

संध्या के झुटपुटे सा
मेरे मन के तीर का लक्ष्य
तुम्हारी शिथा है
अविरत, अविच्छिन्न, क्वाँरी.

मैं भीड़ में हूँ, भीड़ का हूँ
मगर भीड़ से भिन्न भी हूँ.

भीड़ की टिप्पड़ियाँ
कभी दुलराती हैं
कभी कोंचती हैं
कभी मेरे मन की रचना में
तनाव बोती हैं
फिर भी मेरे होने में कहीं कुछ है
जो मुझे संतुलन देता है.

मेरा करवट लेता मौन
मेरे जिस्म में
एक तिलमिलाता टिकाव जोड़ता है.

शुरू से ही मेरी अस्मिता
मेरी प्रयोगशाला रही है
अपने प्रयोगों में मैंने
उछलती टिप्पणियों को पकड़ा है.
अस्तित्व की गहराई में
गलाने के पूर्व ही
उसे चीरा है फाड़ा है
फिर सम्मतियाँ अभिकल्पित की हैं.

मैं महसूस करता हूँ
इन प्रयोगों में
मैं स्वयं अपनी पकड़ से
छूटता रहा हूँ.

अपने संकल्पित प्रयोगों में
मुझे अनुभव की मार खानी पड़ी है
लेकिन मेरा चोट खाया मन
दुर्वह अतिरेकों से लथफथ
तुम्हारी शिखा के
निरंतर दृष्टि-संपर्क में हूँ.

इस जागरित दृष्टि-संपर्क की भी
कुछ अनोखी प्रतिपत्तियाँ है.

यह अनोखा ही है
कि देखते देखते
प्रयोग की पटरी बदल भी गई
पर
उस बिंदु का रेखांकन कठिन है
जहाँ से लीक अलग हुई.

अब मैं भीड़ के आक्षेपों को
अपनी काया के परमाणुओं से
टकराने देता हूँ.

परमाऩुओं के दीर्घाते कंपन
मेरी समाई को भीड़ से जोड़ते हैं
इस जुड़ाव में कोई तरल बहता है
जिससे मैं भीड़ का
और भीड़ मेरी हो जाती है.

एक संपूर्ण ईकाई की थिरकन
मुझमें लहराने लगती है
और मेरे अतिक्रमण में
विद्रोह खोद देती है.