भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोध की ठिठकन- 8 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:49, 28 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी था कि
अपने होने का बीज
अपनी आंतरिक गहराइयों में
ढूँढ़ता था

मेरे मन का नियामक
जंगलों, गिरि गुहाओं का
एकांत सन्नाटा था.

आज
मेरे रंध्रों से सरसराती
परिवेश की धड़कनें
मेरे मन की नियामक हैं.

कहीं भी कुछ घटे
कोई बात बने बिगड़े
सभी कुछ
मेरे देह-गुण का आहार बन कर
मेरे चित्त की
पंखुरियाँ रचते हैं.

मेरे रचनाशील का विकास
रोज दिन के चढ़ाव उतराव में
असहज ग्रंथियों द्वारा
बुना जाता है.

मों अस्वाभाविक अपरिचय में
खोने लगा हूँ.

मेरे होने का केंद्र
आज कहीं बाहर विस्थापित है.

अपने ही केंद्र को
कस्तूरी मृग की तरह
अपने परितः ढूँढ़ रहा हूँ.

ओ मेरे निपट एकांत
नहीं लगता कि मेरे ठिकाव की ईंटें
मुझसे कहीं बाहर हैं.

मेरी खोज चात्राएँ
अब मेरे ही ऊपर मुझे फेंकने लगी हैं
आज भी मेरा होना
मेरा अपरिचित है.