अस्तित्व का काव्य / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
तुम मेरे क्षणों में
सर्जना के द्वार खोलो
मेरे क्षणों में
रचना का उद्वेलन है.
तुम मेरे अस्तित्व का
काव्य हो
तुम्हारे सागर में तिरोहित
मेरी सर्जना की बूँदें
रूप लेते टूट जाती हैं.
वे रूप लें तो ही
तुम्हारे बोध का प्रकाश
मेरे होने को बेध सकेगा
रूप लेता
सीमाबद्ध जीवन ही तो
वह माध्यम है
जिसमें तुम्हारी अभिव्यक्ति
अनुबोधित होती हैं.
इतिहास के क्षण पकड़ कर नहीं
रचना के क्षण पकड़ कर
मैं इतिहास से जुड़ने का
आकांक्षी हूँ
हो सकता है
इतिहास का अवबोधन ही
कहीं मुझे
मेरे निकट ला खड़ा करे.
रचना के क्षणों को
अपने निकट एकांत में भी
पाने की कोशिश करता हूँ
इसीलिए सन्नाटा भी बुनता हूँ
पर सन्नाटा बुनते बुनते
टूट जाता है.
कहीं ऐसा तो नहीं
इतिहास और सन्नाटा
दो बिपरीत ध्रुव हों
जो एक साथ साधे न जा सकें
हालाँकि इतिहास भी तो
एक सन्नाटा अलाव है.
तुम मेरे क्षणों को रचो
शायद मेर क्षण रच जाएँ
तो मुझमें
रचनांकुरों की दिशा भी
खुल सके.