यहाँ के लोग जब जाते हैं दूर परदेश, कमाने-धमाने
तब बनती है घाठी !
घाठी, गेहूँ के पिसान की
जिसमें भरी जाती हैं
खाँटी चने की जाँत में पिसी हुई सतुआ
जिसमें भरे जाते हैं
नमक, मिर्च और आम के अचार के मसाले
उसके बाद सरसों के तेल में
छानी जाती हैं नन्ही -नन्ही घाठी !
घाठी ,जिसे छानने- बघारने के लिए
रात भर जगतीं हैं माँ और घर रात से भिनसार तक गुलज़ार रहता है
घाठी, जिसे माँ ,सुबह-सुबह मेरे जाने से पहले
छानती हैं करीअई कराही में कराही - की - कराही
और नरम-गरम छानकर थरिया भर देती हैं मुझे
स्नेह से यह कहते हुए कि बेटा !
रेलगाड़ी में जाते हुए बटोही को भूख ख़ूब लगती है
और ख़रीद कर इधर-उधर खाने में पैसा भी तो लगता है, बाबू !
इसलिए, प्राण-मन-भर ये ही खा लो, बाबू !
मैंने बनाई है, बेटा ! अपने हाथों से
लो, और दो ले लो
क्या पता कब खाओगे मेरे हाथ की
बनी-बनाई घाठी !
माँ लाख सिफ़ारिश करती हैं
कि ले , और ले ,
खा ले बेटा !
पर मुझसे खाया नहीं जाता!
तब माँ चुप्पे-चुप्पे
मेरे परदेसी बैग में
भर देती हैं घाठी
कई जन्म के खाने के बराबर जैसे
कई जने के खाने के बराबर जैसे ...
तब मैं ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
इससे पहले कि
मेरी माँ मेरी बहन मेरे भाई मेरे पिताजी मेरी लुगाई
सब के सब कुछ दूरी पर पहुँचाने जाते हैं कपली नदी के सँग-सँग
और गाय बैलों की
चिरई-चुरूँगों की घोर उदासी मेरी आँखों में
किसी नुकीली खूँटी की तरह धँस जाती हैं !
मैं तब जल्दी में होता हूँ
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
इससे पहले कि
हाथ जोड़ अपने बाबा का गोड़ लाग लूँ
इससे पहले कि
आजी माई बाबूजी की अमर चरनिया को छू लूँ
और छोटे भाइयों को कोमल अभिलाषा दिला कर
उनके हाथों में दस-बीस थम्हा दूँ
कि मैं जरूर आऊँगा मेरे भाई
तुम्हारी पसन्दीदा कोई चीज़ लेकर...
मैं तब जल्दी में होता हूँ
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
लंका स्टेशन की तरफ जाने वाली ऑटो !
इससे पहले कि
अपनी दुलारी बहन को
यह आशा दिला दूँ
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
अगले रक्षाबन्धन तक ज़रूर आ जाऊँगा, मेरी बहन !
तू सोन चिरई है री !
चिन्ता मत कर ।
मैं तब जल्दी में होता हूँ
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
इससे पहले कि
अपनी प्यारी दुल्हनिया से
एक मीठी बतिया, बतिया तो लूँ
और धीरज दिला तो दूँ
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
आऊँगा तो तुम्हारे लिए ज़रूर एक सुन्दर चुनरी लेकर आऊँगा
यहाँ की तरह वहाँ टिकुली-सेनुर ,
छाएगल , और शौक-सिंगार का सामान
मिलेगा कि नहीं
पर भरोसा दिलाता हूँ तुम्हें प्रिय !
मैं जल्द ही लौट आऊँगा अगले करवाचौथ तक !
आऊँगा तो ज़रूर तुम्हारे लिए कुछ लाऊँगा
ख़ाली हाथ थोड़े ही आऊँगा
और हाँ , कलकतवा जाऊँगा तो ज़रूर अपनी एक दो कविताएँ उन मज़दूरों को भी सुना कर ही आऊँगा !
मैं तब जल्दी में होता हूँ
ऑटो पकड़ ही लेता हूँ
कुछ देर बाद लंका स्टेशन पहुँच ही जाता हूँ
तुरन्त टिकट भी कटा लेता हूँ
कुछ देर स्टेशन पर
दूर परदेश जाने वाले यात्रियों का चेहरा
एक बच्चे की तरह पढ़ता हूँ ...
कुछ सोचता हूँ ...
तब तक देखता हूँ कि पूरब की तरफ से सीटी बजाती हुई ट्रेन, धुआँ उड़ाती हुई ट्रेन
आ रही है झक झक झक झक ....
तुरन्त कन्धे पर टाँगता हूँ बैग
बैठ जाता हूँ रेल में खिड़कियों के पास
देखता हूँ दूर, दूर पेड़-पौधे,
पशु-पक्षी ,नदी-नाले, जल-जँगल-ज़मीन
धानों की हरी-भरी पथार
पथारों में खटते हुए किसान-बनिहार..
इसी तरह उदास-उदास बीत जाता है दिन
इसी तरह उदास-उदास बीत जाती है रात......
अचानक भूख लगने लगती है कस के
तब याद आती है घाठी की, बस, घाठी की !!
घाठी , चलती हुई रेल में चुपचाप
अचार के सँग खाने से खाया नहीं जाता !
तब माई की याद आती है
बहन की याद आती है
वह खाट पर लेटे हुए बीमार बाबा याद आने लगते हैं
मस्तक पर पगड़ी बाँधे हुए , खेती-बारी में घूमते हुए पिताजी की दिव्य-दृश्य चलचित्र की तरह याद आने लगते हैं
आँगन-दुआर में रोज़ सँध्या को हुक्का पीते हुए आजी की याद आने लगती है
उन मासूम-मासूम भाइयों की याद आने लगती है
शिवफल-वृक्ष के शीतल छईंयाँ बँधाए हुये खूँटियों में
गईया बछिया बरधा याद आने लगते हैं
याद आने लगते हैं गाँव-गिराँव के मज़दूर-किसान बन्धु !
तमाम खेत याद आने लगते हैं
खेत की मेड़ें याद आने लगती हैं
और जब लुगाई की याद आने लगती हैं
तब आँखों से कल-कल-निनाद करती हुई धारदार नदी बहने लगती है !
...आत्मा और काया में प्रेम , बिरह और माया इतने कचोटने लगते हैं..कि अपने गाँव-जवार ,नदी-नाले ,वन-जँगल ,पर्वत-अँचल
इतने रच बस जाते हैं तन-मन में
कि मन करता है कि अगले स्टेशन पर तुरन्त उतरकर लंका की तरफ़फ जाने वाली ट्रेन पकड़ लें !
पकड़ ही लें !